Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन अथानन्तर जांबूनन्द प्रादि सब रामसे कहत भए हे देव ! अनन्तवीर्य योगींद्रको रावणने नमस्कार । | कर अपने मृत्युका कारण पूछा तब अनन्तवीर्यकी आज्ञाभई जो कोटिशिलाको उठावेगा उससे तेरी
मृत्युहै तब ये सर्वज्ञके वचन सुन रावणने विचारी ऐसा कौन पुरुषहै जो कोटि शिलाको उठावे यह वचन विद्याधरोंके सुन लक्ष्मण बोले मैं अबही यात्राको वहां चलूंगा तब सबही प्रमाद तज इनके लार भए जाम्बूनन्द महाबुद्धि, सुग्रीव, विराधित अर्कमाली नल, नील इत्यादि नाम पुरुष विमान विष राम लक्षमणको चढ़ाय कोटिशिला की और चले अंधेरी रात्रि में सो शीघ्र ही जाय पहुंचे शिलाके समीप उतरे शिला महा मनोहर सुर नर असुरों से नमस्कार करने योग्य ये सर्व दिशा में सामन्तों को रखवारे राख शिला की यात्रा को गए हाथ जोड़ सीस निवाय नमस्कार किया सुगन्ध कमलों से तया अन्य पुष्पों से शिलाकी अर्चा करी चन्दनकर चरची सो शिला कैसी शोभती भई मानसाक्षात शची ही है उससे जे सिद्ध भए तिनको नमस्कार कर हाथ जोड भक्तिकर शिलाकी तीन प्रदक्षिणा दई सब विधिमें प्रवीण हैं तब लक्ष्मण कमर बांध महा विनय को धरता हुवा नमोकार मंत्रमें तत्पर महा भक्ति स्तुति करनेको उद्यमी भया और सुग्रीवादि बानर बंशी सबही जयजयकार शब्दकर महा स्तोत्र पढ़तेभए एकाग्रचितकर सिद्धोंकी स्तुतिकरे हैं कि भगवान सिद्धत्रैलोक्यके शिवरपर विराजे हैं वह लोकशिखर महादेदीप्यमानहै और वे सिंधस्वरूप मात्र सत्ताकर अविनश्वर, तिनका फिर जन्म नहीं अनंत वीर्यकर संयुक्त अपने स्वभावमें लीन महासमीचीनता युक्त समस्त कर्मरहित संसार समुद्र के पार कल्यामा मूर्ति श्रानन्द पिंड केवलज्ञान केवलदर्शन के आधार पुरुषाकार परम सूक्ष्म अमूर्ति अगुरु लघु असंख्यात ।
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