Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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ऐसा शोभताभयाजेसा सुमेरुके ऊपर जिनमंदिर शोभे परमज्योति से मंडित उज्वल छत्रकर शोभित । हंससमान उज्ज्वल चमर जिसपर दुरें हैं और पवन समान अश्व चालते पर्वत समान गज और देवोंकी सेना समान सेनाउसके संयुक्त इस भांतिमहा विभूतिसे युक्त आकाश गमन करता गमादिक सर्वने देखा गौतमस्वामी गजा श्रेणिक सेकहे हैं हे गजन यह जगत नाना प्रकारके जावों से भग है तिन में जो कोई परमार्थ के निमित्त उद्यम को हैं सो प्रशंशा योग्य हैं और स्वार्थ से जमतही भगहे जेपराया उपकार करें वे कृतज्ञ हैं प्रशंशायोग्य है. और जे निकारण उपपकार करें हैं उन के तुल्य इन्द्रचन्द्र कुबेर भी नहीं और जे पापी कृतघ्नी पराया उपकार लोपे हैं वे नरक - निगो के पात्र हैं और लोक निन्ध हैं ॥ ॥इति पचासवांपर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथान्तर अंजनी का पुत्र श्राकाशमें गमन करता परम उदय को धर कैसा शोभता भया मानों वहिन समान जानकी उसे लायवेको भाई जाय है कैसे हनुमान श्रीरामकी आज्ञा विषे प्रवर्ते हैं महा विनय रूप ज्ञानवंत शुद्ध भाव रामके कामका चित्त में उत्साह सो दिशा मंडल अवलोकते लंकाके मार्गमें राजा महेंद्रका नगर देखतेभए मानों इन्द्रका नगरहै पवर्तके शिखरपर नगरबसे हैं जहां चन्द्रमा समान उज्ज्वलमंदिरहै सो नगर दूरही से नजर आया तब हनूमानने देखके मनमें चितया यह दुर्बुद्धि महेन्द्रका नगरहै वह यहां तिष्ठे है, मेरी माताको जिसने संताप उपजायाथा पिता होयकर पुत्रका ऐसा
अपमानकरे जो इसने नगरमें न राखी तब माता बनमें गई जहां अनन्तगतिमुनितिष्ठथेतिननेअमृतरूप । बचनकहकरसनाधानकरी सोमेगउद्यानविषजन्मभया जहांकोई बंधुनहींगमाता शरणावेप्रोस्यह न ।
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