Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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परराख। ॥६३॥
पन हूं सो देशान्तर भ्रमण को गया था सो अनेक देश देखे पृथिवीपर भ्रमण करता देवयोग से कर्म पुर पुरास
गया सो एक निमित्तज्ञानी पुरुष की संगति में रहा उस ने मुझे दुखी जान करुणाकर यह मंत्रमई लोह का कडा दिया और कही यह सर्व रोग का नाशक है बुद्धिवर्द्धन है ग्रह सर्प पिशाचादिकका वश करण हाराहै इत्यादि अनेक गुण हैं सो तू राख ऐसा कह मुझे दिया और अब मेरे राज्य का उदय पाया मैं राज्य करने को अपने नगर जावू हूं यह कडा में तुझे दूहूं तू मरेमत जो बस्तु आप पै आई अपना कार्य कर किसी को दे देने से बड़ा फल है सो लोक में ऐसे पुरुषों को मनुष्य पूजे हैं प्रात्मश्रेय को ऐसा कह राजकुमार अपना कडा देय अपने नगर गया औरयह कड़ा ले अपने घर आया उस ही दिन उस नगर के राजा की राणी कोसर्प ने डसा था सो चेष्टा रहित होयगई उसे मृतक जान जरायवे को लाएथे सो प्रात्मश्रेय ने मंत्रमई लोहके कड़े प्रसाद से विष रहित करी तब राजाने अतिदान देय बहुत सत्कार किया आत्मश्रेय के कड़े के प्रसाद से. महाभोग सामग्री भई सब भाइयों में मुख्य ठहरा पुण्यकर्म के प्रभाव से पृथिवी पर प्रसिद्ध भया एक दिन कड़े को वस्त्र में बांध सरोवर गयो सोगोह आय कड़े को लेय महावृक्ष के तले ऊंडा बिल है.उस में बैट गई विल शिलों से आच्छादित सो गोह बिल में बैठी भयानक शब्द करे आत्मश्रेय ने जाना कड़े को गोह बिलमें लेगई गर्जना करे है तब प्रात्मश्रेय बृक्षको जहसे उखाड़ शिला दूर कर गोह का बिल चूर कर डाला बहुत धन लिया सो राम तो अात्मश्रेय हैं सीता कडे
समान हैं लंका. विल समान है रावण गोह समान इसलिये हे विद्याधरो तुम निर्भय होवो ये लक्षमाण, | के वचन जाम्बूनन्द के बचनों को खण्डन करनारे सुनकर विद्याधर आश्चर्यको प्राप्त भए ।
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