Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण
ही दौड़े सबही विचारें हम पहिली सघ लोवें ता सों राजो अति प्रसन्न होय और भामण्डल कोभी खबर पठाई कि सीता हरी गई उसकी सुध लेवो तब भामण्डल बहिन के दुःख कर अतिही दुखी भयो हेरने का उद्यम किया और सुग्रीव प्रापभी. दृढने को निकसा सो जोतिष चक्र के ऊपर होय बिमान में बैठा देखता भया विद्याधरों के नगर सर्व देखे सो समुद्र के मध्य जम्बद्धीप देखा वहां महेंद्र पर्वतपर अाकाशसे सुग्रीव उतरा वहां रत्नजटी तिष्ठेथा सो ढरा जैसे गरुडसे सर्प डरे फर विमान नजीक अाया। तबग्नजटीनेजानी कि यह सुग्रीव है लंकापति ने क्रोधकर मुझपर भेजासो मुझे मारेगा हायमें समुद्रमें क्यों । न डूब मूया या अन्तर द्वीप में मारा जाऊंगा विद्या तो रावण मेरी हर खेय गया थो अब प्राण हरने यह पठाया, मेरी यह वाञ्छा थी जैसे तैसे भामण्डल पर पहुंचूं तो सर्वकार्य होंय सो न पहुंच सका यह चितवन करे है इतनेमें ही सुग्रीव पाया मानोंदूसरा सूर्य ही है द्वीप को उद्योत करता आया सो इस को बन की रजकर धूसरा देख दया कर पूछता भया हे रत्नजटी पहिले तू विद्या कर संयुक्त था अब हे भाई तेरी क्या अवस्था भई इसभान्ति सुग्रीव ने दयाकर पूछा सो रत्नजटी अत्यन्त कम्पायमान कछु कह न सके तब सुग्रीव ने कहा भय मत कर अपना वृत्तान्त कह बारम्बार धैर्य बन्धाया तब रत्नजटी नमस्कार कर कहता भयो रोवण दुष्ट सीताको हरण कर लेजाता था सो उसके और मेरे परस्पर विरोध भया मेरी विद्या छेद डारी अब मैं विद्यारहित जीवत में सन्देह चिन्तावान् तिष्ठा था सो हे कपिवंश के तिलक मेरे भाग से तुम आए ये वचन रत्नजटी के सुन सुग्रीव हर्षित होय उसे संग लेय अपने नगर में श्रीराम पै लाया सो रत्नजटी रामलक्ष्मण सों सबकेसमीप हाथ जोड़ नमस्कारकर कहता भया हे देव
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