Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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ज्य और अनेक क्रीडा करने के निवास तीस योजल के विस्तार लंकापुरी महाकोट खाईकर मण्डित मानों MT/ दूजी वसुधारा ही है और लंकाके चौगिरद बड़े बड़े, रमणीक स्थानकहें अतिमनोहरमणि सुवर्णमई जहां
रोक्षसों के स्थानक हे तिनमें रावण के बन्धुजन वसे हैं सन्ध्याकार सुवेल कांचन बहादन पोधन हंस हर सागर घोष अर्धस्वर्ग इत्यादि मनोहर स्थानक धन उपवन श्रादिसे शभित देवलोकसमानहै जिन विष भ्रात, पुत्र, मित्र, स्त्री बांधव सेवक जन सहित लंकापति रमे है सो उस विद्याधरोंके सहित क्रीड़ा करता देख लोकोंको ऐसी शंका उपजे है कि मानों देवोंसहित इन्द्रही रमे है जिसका महाबली विभीषण सा भाई जो औरोंसे युद्ध में न जीता जाय उस समान बुद्धि देवोंमें नहीं और उस समान मनुष्य नहीं उस एकही से रावणका राज्य पूर्ण है और रावणका भाई कुम्भकर्ण त्रिशूलका धारक जिसका युद्ध में टेढी भौहें देवभी देख सकें नहीं तो मनुष्योंकी क्यावात और रावणका पुत्र इन्द्रजीत पृथ्वी विषे प्रसिद्धहै और जिनके बडे २ सामन्त सेवकहें नाना प्रकार विद्याके धारक शत्रु के जीतनहारे और जिसका छत्र पूर्ण चन्द्रमा समान जिसे देखकर वैरी गर्वको तजे हैं जिसने सदा रण संग्राममें जीत ही जीत सुभदपनेका विरद प्रकट कियाहे सौ रावणके छत्रको देख तिनका सर्व गर्व जाता रहे और रावणका चित्रपट देखे अयवा नाम सुने शत्रु भयको प्राप्तहोय जो ऐसा रावण उससे युद्ध कौन कर सके इसलिये यह कथाही न करना और बात करो। यह बात विद्याधरोंके मुखसे सुनकर लक्ष्मण बोला मानों मेघ गाजा तुम पती प्रशंसा करो हो सो सब मिथ्याहै जो वह बलवानथा तो अपना नाम | छिपाय स्त्रीको चुराकर क्यों लेगया वह पाखण्डी अतिकायर अज्ञानी पापी नीच राचस उसके रंच
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