Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराव
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मैं एकव्रत लिया है वे भगवान दे इन्द्रादिक कर कन्दनीक ऐसा व्याख्यान करते भए कि इस संसार में भ्रमण करते जीव परम दुखी तिनके पापों थकी निवृति निर्वाणका कारण है एक भी नियम महा फलको देय है और जिन के एक भी बत नहीं के नर जर्जरे कलश समान निर्गुण हैं जिनके मौत का कारण कोई नियम नहीं तिन मनुष्यों में और पात्रों में कबू अन्तर नहीं इस लिये अपनी शक्ति प्रमाण पापों को जो सुक्तरूप धन को अंगीकार करो ताते जन्म के आंबेकी व्याई संसाररूप अन्धकूप में व परो इस भान्ति भगवान के मुखरूप कपलसे निकसे वचनरूप अमृत सो पीयकर के यक मनुष्य तो मुनि के यत्र अल्प शक्ति अमुक्तका धारण कर श्रावक भए कर्म के सम्बन्ध से सब की एक तुल्य शक्ति: वहीं वहां भगवान केवली के समीप एक साधु मोसे कृपाकर कहते भया हे दशानन कछु नियम तुमभी लेहु तू दया धर्मरूपरून नदी में आया है सो रूप रन के विन खाली न जाय ऐसा कहा तब मैं प्राकर वेव असुर विद्याधरमान सबकी साचीलिया कि जो पनारी मुझे न इच्छे ताहि मैं बलात्कार स
ऊ हे प्राण पिए मैं विचारी मोसे रूपवान नार को बीछे ऐसी कौन नारी है जो मान करे इस लिए मैं वास्कार न से सजाओंों की यही रीति है जो वचन कहें सो निवाहें अन्यथा महादोष लागे सो मैं इसलिए प्राण त ता पहिले सीता को प्र घरके भरा भए पीछे कुवां खोदना, वृथा देवक मन्दोदरी को विहल जान कहती भई हे नाव तुम्हारी आज्ञाप्रमाण ही होयगा ऐसा कह देनारम्य मा उद्यान में गई और उसका की अह हजार राणी गई मन्दोदरी आयकर सीता मो. साति कहती भई हे सुमदर हर्ष के स्थान में कहां विवाद पर रही है जिस स्त्री के रावण पति
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