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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराव MEGR www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैं एकव्रत लिया है वे भगवान दे इन्द्रादिक कर कन्दनीक ऐसा व्याख्यान करते भए कि इस संसार में भ्रमण करते जीव परम दुखी तिनके पापों थकी निवृति निर्वाणका कारण है एक भी नियम महा फलको देय है और जिन के एक भी बत नहीं के नर जर्जरे कलश समान निर्गुण हैं जिनके मौत का कारण कोई नियम नहीं तिन मनुष्यों में और पात्रों में कबू अन्तर नहीं इस लिये अपनी शक्ति प्रमाण पापों को जो सुक्तरूप धन को अंगीकार करो ताते जन्म के आंबेकी व्याई संसाररूप अन्धकूप में व परो इस भान्ति भगवान के मुखरूप कपलसे निकसे वचनरूप अमृत सो पीयकर के यक मनुष्य तो मुनि के यत्र अल्प शक्ति अमुक्तका धारण कर श्रावक भए कर्म के सम्बन्ध से सब की एक तुल्य शक्ति: वहीं वहां भगवान केवली के समीप एक साधु मोसे कृपाकर कहते भया हे दशानन कछु नियम तुमभी लेहु तू दया धर्मरूपरून नदी में आया है सो रूप रन के विन खाली न जाय ऐसा कहा तब मैं प्राकर वेव असुर विद्याधरमान सबकी साचीलिया कि जो पनारी मुझे न इच्छे ताहि मैं बलात्कार स ऊ हे प्राण पिए मैं विचारी मोसे रूपवान नार को बीछे ऐसी कौन नारी है जो मान करे इस लिए मैं वास्कार न से सजाओंों की यही रीति है जो वचन कहें सो निवाहें अन्यथा महादोष लागे सो मैं इसलिए प्राण त ता पहिले सीता को प्र घरके भरा भए पीछे कुवां खोदना, वृथा देवक मन्दोदरी को विहल जान कहती भई हे नाव तुम्हारी आज्ञाप्रमाण ही होयगा ऐसा कह देनारम्य मा उद्यान में गई और उसका की अह हजार राणी गई मन्दोदरी आयकर सीता मो. साति कहती भई हे सुमदर हर्ष के स्थान में कहां विवाद पर रही है जिस स्त्री के रावण पति For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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