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पुराण ॥६१०॥
सो जगत में धन्य है सर्व विद्याधरों का अधिपति सुरपति का जीतनहारा तीन लोक में सुन्दर उसे क्यों न इच्छे निर्जन बन के निवासी निर्धन शक्ति हीन भूमि गोचरी तिनके अर्थ कहा दुःख करे है सर्व लोक में श्रेष्ठ उसे अंगीकार कर क्यों न सुख करे अपने सुख का साधन कर इस में दोष क्या जो कछु करिये है सोअपने सुखको निमित्त करियहै और मेरा कहाजोन करेगी तोजो कुछतेरा होनहारहै सोहोगा रावण महो बलवान है कदाचित् प्रार्थनाभंग से कोप करे तो तेरा इस बात में अकोरज ही है और राम लक्ष्मण तेरे सहाई हैं सो रावण के क्रोध किए उनका भी जीवना नहीं इसलिये शीघ्र ही विद्याधरोंकाजो ईश्वर उसे अंगीकार कर जिस के प्रसादसे परम ऐश्वर्यको पाय कर देवन केसे सुख भोग जबऐसा कहा तब जोनकी अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जिसके गदगद बाणी कर कहती भई हे नारी यह बचन तैने सब ही विरुद्ध कहे तू पतिव्रता कहावे है पतिव्रतावों के मुखसे ऐसे बचन कैसे निकसे यह शरीर मेरा छिदजावे भिदजवे हता जावे परन्तु अन्यपुरुष को मैं न इच्छे रूप कर सनत्कुमार समान होवे अथवा इंद्र समानहोवे तौमेरे कौन अर्थ में सर्वथा अन्य पुरुष को न इच्छं तुम सब अठारह हजार राणी भेली होय कर आई होसो तुम्हारा कहा में न करूं तुम्हारी इच्छा होय सो करो उसही समय रावण पाया मदन के आताप से पीड़ित जैसे तृषातुर माता हाथी गंगाके तीर अावे तैसे सीता के समीप आय मधुर वाणी कर आदर से कहता भया हे देवी तू भय मत करे मैं तेरा भक्त हूं. हे सुन्दरि चित लगाय एक विनती सुन में तीन लोक में कौन बस्तु कर हीन जो तू मुझे न इच्छे, ऐसा कह कर स्पर्श की इच्छा करता भयातब सीता क्रोध कर कहती भई पापी परे जा मेराअंगमत स्पर्शो तब रावण कहता भया कोप और अभिमान तज प्रसन्नहोशची इंद्राणी
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