Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
नीचकुली बाड़े नहीं नखोंसे दांतोंसे विदारी निर्जन बनमें मैं अकेली वह बलवान पुरुष में अबला तथापि ५९॥ पूर्व पुण्य से शील बचाय महा कष्टसे मैं यहां थाई सर्व विद्याधरोंका स्वामी तीनखण्डका अधिपति तीन
लोक प्रसिद्ध रावण किसीसे न जीता जाय सो मेराभाई और तुम खरदूषण नामा महाराज दैत्यजाति के जे विद्याधर तिनके अधिपति मेरे भरतार तथापि मैं दैवयोगसे इस अवस्थाको प्राप्त भई ऐसे चन्द्रनखा के वचन सुन महा क्रोधकर तत्काल जहां पुत्रका शरीर मृतक पड़ाथा वहांगया सो मूवादेख कर अति खेद खिन्न भया पूर्व अवस्थामें पुत्रपूर्णमासी के चन्द्रमा समानथा सो महाभयानक भासता भया खरदूषणने अपने घर या अपने कुटम्बसे मन्त्रकिया तब कैएक मन्त्री कर्कश चित्तथे वे कहते भयेहेदेव जिसने खडग रत्नलिया और पुत्रहता ताहि जो ढीला छोड़ोगे तो न जानिये क्याकरे सो उसका शीघ्र यत्नकरो और कैएक विवेकी कहते भए हे नाथ यहलघुकार्य नहीं सर्व सामन्त एकत्र करो और रावण पैभी पत्र पठावो जिनके हाथ सूर्यहास खडग आया के समान पुरुष नहीं इस लिये सर्व सामन्त एकत्रकर जो विचार करना होय सो करो शीघ्रता न करो तब रावणके निकट तो तत्काल दूत पठाया दूत शीघ्रगामी और तरुण सो तत्काल रावण पै गया रावण का उत्तर पीछा यावे उसके पहिले खरदूषण अपने पुत्र के मरणकर महा द्वेषका भरा सामन्तों से कहताभया वे रंक विद्यावल रहित भूमिगोचरो हमारी विद्या घरोंकी सेनारूप समुद्रके तिरनेको समर्थ नहीं धिक्कार हमारे सूरापन को जो और का सहारा चाहें हैं। हमारी भुजाहें वेही सहाई हैं और दूजा कौन ऐसा कहकर महा अभिमान को धरे शीघ्र ही मन्दिरसे निकसा प्रकाश मार्ग गमन किया तेजरूप है मुख जिसका सो उसको सर्वथा युद्धको सन्मुख जान
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