Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥६०४॥
पद्म । करो थोड़े ही दिन में आप जनक सुता को देखोगे, कैसी है जनकसुता निःपाप है देह जिसकी हे प्रभो |
यह शोकमहा शत्रु है शरीरका नासकरें औरवस्तुकी क्याबात इसलिये आप धीर्य अंगीकार करो यह धीर्य ही महापुरुषों का सर्वस्व है आप सारीखे पुरुष विवेक के निवास हैं धीर्यवन्त प्राणी अनेक कल्याण देख और आतुर अत्यन्त कष्ट करेतो भी इयवस्तुको न देखे और यह समय विषादका नहीं आप मन खगाय सुनों विद्याधरों का महाराजा खरदूषण मारा सो अब इसका परिपाक विषम है सुग्रीव किहकंधापुर का घनी और इन्द्रजीत कुम्भकर्ण त्रिशिर अक्षोभ भीम क्रूरकर्मा महोदर इनको आदि दे अनेक विद्याधर महा योधा बलवन्त इस के परममित्र हैं सो इस के मरण के दुःख से क्रोध को प्राप्त भए होंगे ये समस्त नाना प्रकार युद्ध में प्रवीण हैं हजारां ठौर रण में कीर्ति पाय चुके हैं और वेताड़ पर्वत के अनेक विद्या घर खरदूषण के मित्रहैं और पवनञ्जय का पुत्र हनूमान् जाहि लखे सुभट दर ही टरें उस के सन्मुख देव भी न आवें सो खरदूषणका जमाई है इसलिये वह भा इसके मरणका रोष करेगा इसलिये यहां बन में न रहनाअलंकारोदय नगर जोपाताललंका उसमें विराजिये और भामंडल को सीता के समाचार पठाइये वह नगर महादुर्गम है वहां निश्चल होय कार्य को उपाय सर्वथा करगे इंसभान्ति विरोधित ने विनती करी तब दोनों भाई चार घोड़ों का रथ तापर चढ़कर पाताललंका को चले सो दोनों पुरुषोत्तम सीता बिना न शोभते भए जैसे सम्यक्दृष्टि बिनो ज्ञान चारित्र न सोहें चतुरंग सेना रूप सागर से मंडित दण्डक बन से चले, विराधित आगाऊ गया वहां चन्द्रनखा का पुत्र सुन्दर सो लड़ने को नगर के बाहर निकसा उसने यद्ध किया सो उसको जीत नगर में प्रवेशकिया देवोंके नगर समान वह नगर रत्ममई
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