Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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। वाण चलावताभया यह कथा गोतमस्वामी राजाश्रेणिकसे कहे हैं हे राजन अकेला लक्षमण विद्याधरों पुराव की सेनाको बाणोंसे ऐसा रोकता भया जैसे संयमी साधु आत्मज्ञानकर विषय वासनोको रोके लक्षमणके
शस्त्रों से विद्याधरों के सिर रत्नों के आभरणकर मण्डित कुण्डलोंसे शोभित आकाशसे धरतीपर परें मानों अम्बर रूप सरोवर के कमलही हैं योघावों सहित पर्वत समान हाथी पड़े और अश्वों सहित सामन्त पड़े भयानक शुब्प करते होंठ डसते ऊर्धगामी बाणोंकर वासुदेव बहन सहित योधावोंको पीड़ता भया ।।
अथानन्तर पुष्पकविमानमें बैठा रावण पाया सम्बूकके मारणहारे पुरुषोंपर उपजाहै महाक्रोघ जिसको सो मार्गमें रामकेसमीप सीता महा सतीको तिष्ठतीदेखताभयासो देखकर महामोहको प्राप्तभया कैसीहे सीता जिसे देखे रतिका रूपभी इस समान न भासे मानो साक्षात् सक्षमीही है चन्द्रमा समान सुन्दर वन निझन्यां के फूल समान अधर केसरी की कदि समान कटि सहलहाद करते चंचल कमलपत्र समान लोचन और महा गजराज के कुम्भस्थल के शिखर समान कुच नवयौवन सर्व गुणों कर पूर्ण कांति के समूह से संयुक्तहै शरीर जिसका मानों कामके धनुषकी पिणचही है और नेत्र जिसके कामके वाणही हैं मानों नाम कर्मरूप चतरे ने अपनी चपलता निवारनेके निमित्त स्थिरता कर सुख से जैसी चाहिये तैसी बनाई है जिसको देख रावणकी बुद्धि हरीगई महारूपके अतिशयको धरे जो सीता उसके अवलोकनसे संबूक के मारवे वारेपर जो क्रोध था सो जातारहा और सीतापर राग भाव उपजा चित्तकी विचित्रगतिहै मन में चितवताभया उस बिना मेरा जीतव्य कहां और जो विभति मेरे घरमें उससे क्या यह अद्भुतरूप अनुपम महासुन्दर नवयौवन मुझे खरदूषणकी सेनामें आया कोई ननाने उस पहिले इसे हरकर घर लेजाऊ मेरी
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