Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरास
की धरणहारी अत्यन्त वेगको धरे अविवेकबन्ती इसने मेरी कांता हरीजैसे पापकी इच्छा विद्याको हरे अथवा कोई क्रूर सिंह तुधातुर भरख गयाहोय वह धर्मात्मा साधुव!की सेवक सिंहादिक के देखते ही नखादि के स्पर्श बिनाही प्राणदेय। मेरा भाई भयानक रणमें संग्राममें है सो जीवनेका संशय है यह संसार असारहै और सर्व जीवराशि संशय रूपही हैं अहो यह बड़ा आश्चर्य है जो मैं संसार का स्वरूप जानूहूं और दुखसे शून्यहोय रहाहूं । एक दुख पूरा नहीं परे है और दूजा और आवे है इसलिये जानिए है कि यह संसारदुखका सागरही है जैसे खोडे पगको खंडित करना और दाहे मारेको भस्मकरना और डिगे को गर्तमें डारनारामचंद्रजीने बनमें भ्रमणकर मृगसिंहादिक अनेक जन्तु देखे परंतु सीतान देखी तब अपने आश्रम प्राय अत्यन्त दीनवदन धनुष उतार पृथिवीमें तिष्ठे बारम्बार अनेक विकल्प कस्ते क्षण एकनिश्चलहोय मुखसे पुकारतेभए। हे श्रेणिक ऐसे महा पुरुषका भी पूर्वोपार्जित अशुभके उदय से दुख होगहै ऐसाजानकर हो मग्यजीव हो सदा जिनवरके धर्ममें बुद्धिलगावो संसारसे ममतातजोजे पुरुष संसास्के विकासे पसमुसहोप और जिन बबनको नहीं मारावे संसारके विषे शरणरहित पारूप वृचके कटक फल भोमवे हैं कर्मस्पशत्रुके आतापसे खेद खिन्न हैं। इति पेंतालीसवां पर्व संपूर्णम्
अथानन्तर लक्ष्मण के समीप युद्ध में खरदूषणका शत्रु विराधित नामा विद्याधर अपने मंत्रीऔरशस्वीरों सहित शस्त्रोंकरपूर्ण माया सो लक्षमणको अकेलायुद्धकरता देख महा नरोत्तम जान अपने स्वार्थकी सिद्धि बनसे जान प्रसन्न भ्या महा तेजकर देदीप्पमान शोभताभया वाहन से उतर गोड़े धरती लगाय हायजोड़ । सीसनिवाय अति नमीभत होय परम विनय से कहता भया हे नाथ में आप का भक्त हूं कछु इक मेरी
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