Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पराम
'पन सिद्ध साधु केवली प्रणीत धर्मका शरण लिवाया पक्षी श्रावककै व्रतका धरणहारा श्रीरामके अनुग्रहसे ।
समाधि मरण कर स्वर्ग के विषे देव भया परंपराय मोक्षजायगा, पक्षीके मरणके पीछे आप यद्यपि ज्ञानरूपहें। तथापि चात्रि मोहके वश होय महाशोकवन्त अकेले बनमें प्रिया के वियोगके दाह कर मूर्छा खाय पडे फिर सचेत होय महाव्याकुल महासती सीता को टूटते फिरें निराश भए दीन वचन कहें जैसे भूतके श्रावेश कर युक्त पुरुष वृथा अलाप करे छिद्र पाय महाभीम बनमें काहू पापीने जानकी हरी सो बहुत विपरीत करी मुझे मारा अब जो कोई मुझे प्रिया मिलावे और मेरा शोकहरे उससमान मेरा परम बांधवनहीं हो बन के वृक्ष हो तुम जनकसुता देखी चंपा के पुष्प समान रंगकमल दल लोचन सुकुमार चरण निर्मल स्वभाव । उत्तम चाल चित्तकी उत्सव करणहारी कमलके मकरंद समान सुगन्ध मुखका स्वांस स्त्रियोंके मध्य श्रेष्ठ तुमने पूर्व देखीहोय तो कहीं इसभांति बनके बचोसे पूछे हैं सो वै एकेन्द्री वृक्ष कहाँ उत्तर देवें तब राम सीताके गुणोंसे हराहै मन जिनका फिर मू खाय धरतीपर पड़े फिर संचतहोय महाकोधायमान बजा वर्त पनुपहाथमें लिया फिणच चढ़ाई. टंकोर किया सो दशौदिशा शब्दायमानभई सिंहोंको भयकाउप| जावनहारा नरसिंहने धनुषका नाद किया सो सिंहभागगए और गोंक मद उतरगएतब धनुष उतार
अत्यन्त विषारको प्राप्तहोय बैठकर अपनी भूलका सोच करतेभए, हाय हाय में मिथ्या सिंहनाद के । श्रवणकर विश्वासमान वृथा जाय प्रिया खोई जैसे मूढजीवकुश्रतका श्रवण सुन विश्वासमान अविवेकी
होय शुभगत्तिको खोवे सो मूढके खोयवेका आश्चर्य नहीं परन्तु में धर्मबुद्धि बीतराग के मार्ग का । || श्रद्धानी असमझहोय अमुरकी मायामें मोहित हुवा यह आश्चर्यकी बातहै जैसे इस भव बनमें अत्यंत ।
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