Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराव
॥५५
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धनुषवाण लेयचले सो अपशकुन भए सो न गिने महासती को अकेली बनमें छोड शीघ्रही भाई पै गए महारण में भाईके आगे जाय ठाढ़े रहे उससमय रावण सीता के उठायवे को याया जैसा माताहाथी कमलिनी को लेने द्यावे काम रूप दाहकर प्रज्वलित है मन जिसका भूलगई है समस्त धर्मकी बुद्धिजिसकी सीताको उठी पुष्पक विमानमें धरनेलगा तब जटायु पक्षी स्वामींकी स्त्री को हरतीदेख क्रोधरूद अग्निकर प्रज्वलित भयाउठकर अति वेगसे रावणपर पडा तीक्षण नखोंकी अणी और चंचसे रावण का उरस्थल रुधिर संयुक्त किया और अपनी कठोर पावोंसे रावणके वस्त्र फाडे रावण का सर्वशरीर खेदखिन्नकिया तब रावणने जानी यह सीताको छुडावेगा झंझट करेगा इतने से इसका धनी थान पहुंचेगा सो इसे मनोहर वस्तु का अवरोधक जान महा क्रोधकर हाथ की चपेट से मारा सो प्रति कटोर हाथकी घातसे पक्षी विह्वलहोय पुकारताहुवो पृथिवी में पड़ा मूर्द्धाको प्राप्तभया तब रावण जनकसुताको पुष्पक विमान में घर अपने स्थानकको लेचला हेश्रेणिक यद्यपि रावण जाने है यह कार्य योग्य नहीं तथापि काम के वशीभूत हुआ सर्व विचार भूल गया सीता महासती आप को परपुरुष कर हरी जान रामके अनुरोग से भीज रहा है चित्त जिस का महा शोकवन्ती होय रतिरूप विलाप करती भई, तब रावण इसे निज भरतार में अनुरक्त जान रुदन करती देख कुलू एक उदास होय विचारता भया जो यह निरन्तर रोवे है और विरह कर व्याकुल है अपने भतार के गुण गावे है अन्यपुरुष के संयोग का अभिलाष नहीं, सो स्त्री अवध्य है इसलिये मैं मार न सक और कोई मेरी अज्ञा उलंघेतो उसे मारूं और मैं साधुवों के निकट ब्रत लिया था जो परस्त्री मुझे न इच्छे उसे मैं न से सो मुझे यह बतदृढ़ रखना इसे कोई उपायकर प्रसन्नकरूं उपायकिये प्रसन्न होयगी:
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