Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
पद्म शोक कर पिता भी परलोक में गया सा में पूर्वले पाप से कुटुम्ब रहित दण्डक बनमें आई मेरे मरण की।
अभिलाषा सो इस भकानक बनमें किसी दुष्ट जीवने न भषी बहुत दिनों से इस वनमें भटक रही हूं। आज मेरे कोई पापकर्म का नाश भया सो श्राप का दर्शन भया अव मे रेप्राण न छूटें ता पहिले मुझे कृपाकर इच्छो जोकन्या कुलवन्ती शीलवन्तीहोय उसेकोन न इच्छे सबही इच्छे यहइसके लज्जारहित वचन | सुनकर दोनों भाई नरोत्तम परस्पर अवलोकन कर मौन से तिष्ठे कैसे हैं दोनों सर्वशास्त्रों के अर्थ का। जो ज्ञान सोई भया जल उससे धोयाहै मन जिनका कृत्य अकृत्य के विवेकमें प्रवीण तब वह इनका। चित्त निष्काम जान विश्वास नास कहती भई मैं जावं तब राम लक्षमण बोले जोतेरी इच्छा होय सो कर तब वह चली गई उसके गए पीछे राम लक्षमण सीता आश्चर्य को प्राप्त भए और वह क्रोधायमोन होय शीघ्र पतिके समीप गई और लक्षमण मनमें विचारता भया कि यह कौनकी पुत्री कौन देशमें उपजी समूहसे विठुरी मृगी समान यहां कहांसे आई हे श्रेणिक यह कार्य कर्तव्य यह न कर्तव्य इसका परिपाक शुभ वा अशुभ ऐसाविचार अविवेकी न जानें अज्ञानरूप तिमिरसे प्राचादितहै बुद्धि जिनकी और प्रवीण बुद्धि महाविवेकी अविवेकसे रहित हैं सो इसलोकमें ज्ञानरूप सूर्यके प्रकाशकर योग्य अयोग्य को जान अयोग्य के त्यागी होय योग्य क्रिया में प्रवृत्ते हैं ॥ इति चवालीसवां पर्व संपूर्णम् ॥ ___ अथानन्तर जैसे हृदका तट फूट जाय और जल का प्रवाह विस्तार को प्राप्त होय तैसे खरदूषण
की स्त्री का राम लक्षमण से राग उपजाथा सो उनकी अवांछा से विध्वंस भया तब शोकका प्रवाह प्रकट || भया अतिव्याकुल होय नाना प्रकार विलाप करतीभई अरतिरूप अग्निकर तप्तायमान है अंग जिसका।
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