Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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प प्र पुराण
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चरा है अंग जिसका नानाप्रकार की माला और सुन्दर बस्त्र पहिरे और एक खडग अदभुत लिये आवे है सो खड्ग से ऐसा सोहे है जैसा केसरी सिंह से पर्वत शोभे तव रामने आश्चर्यको प्राप्तभया है मन जिनका प्रति हर्षित होय लक्ष्मण को उठ कर उर से लगाय लिया, सकल बृतोन्तपूछा तब लक्ष्मणने सर्व बात कही आप भाई सहित सुख से विराजे नाना प्रकार की कथा करें और संक की माता चन्द्रनखा प्रतिदिन एक ही अन्न भोजन लावती थी सो आगे आयकरदेखेतो बांसका बीड़ाकटा पडा है, तब विचारती भई कि मेरे पुत्र ने भला न किया, जहां इतने दिनरहा और विद्यासिद्धि भई ताहीं वीड़े को काटा सो योग्य नहीं था अब अटवी छोड़ कहां गया इत उत देखे तो अस्त होता जोसूर्यउसके मंडल समान कुण्डल सहित सिर पड़ा है और घड़ जुदा पडा है देख कर उसे मूर्छा ध्याय गई मूर्छा ने इसका परम उपकार किया नातर पुत्र के मरण से यह कहां जीवे, फिर केतीक बेर में इसे चेत भया तब हाहाकार कर उठी पुत्र का कटा मस्तक देख शोक कर प्रतिविलाप किया नेत्र आंसुओं से भर गए अकेली बनमें करची कन्या पुकारती भई हा पुत्र बारह वर्ष और चार दिन यहां व्यतीत भए तैसे तीन दिन और भी कयौं न निक्स गए तुझे मरण कहां से आया हाय पापी काल तेरा मैं क्या बिगाड़ा जो नेत्रोंकी निधि पुत्र मेरा तत्काल विनाशा में पापिनी परभव में किसीका बालक हता था सो मेरा बालक हता गया, हे पुत्र का मेनहारा एक बचन तो मुख से कह हे बत्स या अपना मनोहर रूप मुझे दिखा ऐसी माया रूप मङ्गल कीडा करना तुझे उचित नहीं अबतक तैंने माताकी आज्ञा कवहूं न लोपी अब निःकारण यह बिल कार्य करना तुझे योग्य नहीं इत्यादिक कविल्प कर विचारती भई निःसन्देह मेरा पुत्र
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