Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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अ५८५
पद्म देवों की शक्ति बडी क्रांति बडी और विद्याधर तो मनुष्यहें क्षत्री वैश्य शूद्र यह तीन कुलहें गर्भवास
के खेद भुक्ते हैं विद्या साधनकर आकाशमें बिचरे हैं सो अढाई द्वीप पर्यंत गमन करे हैं और देव गर्भ वाससे उपजे नहीं महासुन्दर स्वरूप पवित्र धातु उपधातु कर रहित आंखोंकी पलक लगे नहीं सदा जाग्रत जरारोगरहित नवयौवन तेजस्वी उदार सौभाग्यवन्त महासुखी स्वभावहीसे विद्यावंत अवधि नेत्र चाहे जैसारूप करें स्वेछाचारी देवों विद्याधगेका कहां संबंध, हे श्रेणिक । ये लंकाके विद्याधरराक्षसद्धीप में बसे इसलिये राक्षस कहाए ये मनुष्य क्षत्री वंश विद्याधर, देवभी नहीं राक्षसभी नहीं इनके वंश में लंका विषे अजितनाथके समयसे लेकर मुनिव्रत नाथके समय पर्यंत अनेक सहस्र राजा प्रशंसा करने योग्यभए कई सिद्धभए केई सर्वार्थ सिद्ध गए केईस्वर्ग विषे देवभए केईएक पापी नरकगए अब उस बंश में तीन खण्डका अधिपति जो गवणासी राज्य करे है उसकी बहिन चन्द्रनखा रूपसे अनूपमसो महा पराक्रमवन्त खरदूषणने परणी वह चौदह हजार राजोकाशिमोमणि रावणकी सेनामें मुख्यसोदिग्पाल समान अलंकापुर जो पाताललंका वहां थाने रहे हैं उसके संबक और सुन्दर ये दो पुत्र रावण के भानजे पृथ्वी प्रतिमान्यभए सो गौतमस्वामी कह हैं हे श्रेणिक माता पिताने संबूको बहुत मने किया तथापिकालका प्रेरा मूर्यहास खडग साधिवे के अर्थ महाभयानकवनमें प्रवेश करताभया शास्त्रोक्तमाचार को आचरता हुवामूर्यहास खडगक साधिबको उद्यमीभया एकही अन्नका श्राहारी ब्रह्मचारी यतेन्द्रिय विद्या साधिवेको बांसके बीडमें यह कहकर बैठा, कि जब मेरा पूर्ण साधन होयगा तबही में बाहिर || श्राऊंगा उस पहिली कोई बोर्ड में प्रावेगा और मेरी दृष्टि पड़ेगातो उसे मैं मारूंगा ऐसा कहकर एकांत
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