Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुगध | अथ सीताहरण और युद्धनामा चौथा महा अधिकार।।
अथानन्तर वर्षातु व्यतीतर्भई शरदऋतुका आगमनभया मानों यह शरदऋतु चंद्रमाकी किरण रूप बामोंसे वर्षारूप बैरीको जीत पृथिवीपर अपना प्रताप विस्तारती भई दिशारूप जे स्त्रियेसो फल रहे हैं छल जिनके ऐसे वृक्षोंकी सुगन्वताकर सुगन्धित भई हैं और वर्षा समयमें कारी घटावोंकर जो आकाश श्यामथा सो अब चन्द्रकांतिकर उज्वल शोभताहुवा मानों क्षीरसागरके जलसे धोयाहै और बिजलीरूप
स्वर्ण सांकलकर युक्र वर्षकालरूपी गज पृथिवीरूप लक्ष्मीको स्नानकराय कहीं जातारहा और शस्तके | योगसे कमल फुले तिनपर भूमर गुंजार करते भएइंस क्रीडा करतेभए और नदियोंके जल निर्मल होय ।
गए दोनों किनारेमहामुन्दर भासते भए मानों शरवकाल रूपनायिकाको पाय सास्तारूप कामिनीकांति । | को पास भई हैं और बनवर्षा और पवनकर छूटे केसे शोभते भए मानोनिद्रासे रहित ज.प्रत दशा को | प्राप्तभरहें सरोवरों सरोजनियोंपर भूमर गुंजार करे हैं और वन विषेच्चोंपर पची नाद करे हैं सोमानों
परस्पर वार्ताही करे हैं और रजनीरूप नायिकानानाप्रकारके पुष्पोंकी सुगन्धताकर सुगन्धित निर्मल प्राकाशरूप बस पहरे चन्दमारूप तिलकधरे मामों शरदकालरूप नायक जायहै । और कामीजनों को काम उपजावती केतकीके पुष्पोंकी रजकर मुगन्ध पवन चले है इस भांति शरद ऋतु प्रवरसी सो
लक्ष्मण बड़े भाईकी मात्रा मांग सिंहसमान महा पराक्रमी बन देखनेको श्रोला निकला सो भागे || गए एक सुमन्धपवन अईतव लचमण विचारते भए यह मुगन्ध काहे की है ऐसी अद्भुत मुगन्ध ।
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