Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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राजाक्षमंकर अगलेभी भवका पिता सो हमारे शोकरूप अग्निकर तप्तायमानहुवा सर्व आहारतजमरण को प्राप्त भया सो गरुडेंन्द्र भयो । भवन वासी देवों में गरुड़ कुमार जाति के देव तिन का अधिपति महा सुन्दर महा पराक्रमी महालोचन नाम सोपाय कर यह देवों की सभा में बैठा है और वह अनुधर तापसी विहार करता कौमुदी नगरी गया अपने शिष्यों के समूह से बेढा वहां राजा सुमुख उसके राणी रतिवती परम सुन्दरी सैंकड़ों गणियों में प्रधान और उसके एक नृत्यकारनी मद की पताका ही है, अतिसुन्दर रूप । अद्भुत चेष्टा की धरणहारी, उसने साधुदत्त मुनि के समीप सम्यक्दर्शन ग्रहा तबसे कुगुरु कुदेव कुधर्म । को तृणवत् जाने उसके निकट एक दिन राजा ने कही यह अनुधर तापसी महातप का निवास है।। तब मदनाने कही हे नाथ अज्ञानी का कहां तप लोक में पाखण्ड रूप है यह सुनकर राजाने क्रोध किया तू । तपस्वी की निन्दा करे है, तब उसने कही आप कोप मत करो थोड़े ही दिन में इसकी चेष्टादृष्टि पडेगी ऐसा कहकर घर जाय अपनी नागदत्ता नामा पुत्री को सिखाय तापसी के आश्रम पठाई, सो वह देवांगना समान परम चेष्टा की धरणहारी महा विभ्रम रूप तापसी को अपना शरीर दिखावती भई, सो इस के अंग उपंग महा सुन्दर निरख कर अज्ञानी तापसी का मन मोहित भया और लोचन चलायमान भए जिस अंग पर नेत्र गए वहां ही मन बन्ध गया काम बाणों सेतापसी पीडित भयाव्याकुल होय देवांगना समान जो यह कन्या उसके समीप आय पछता भया, तू कौन है और यहां क्यों आई है सन्ध्या काल में सव ही लघु बृद्ध अपने स्थानक में तिष्ठे हैं । तू महासुकुमार अकेली बनमें क्यों विचरे है, तब वह कन्या मधुरशब्द कर इसका मनहरती सन्ती दीन्ता को लिये बोली चंचलनील कमल समान हैं लोचन
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