Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराव ॥५६॥
कुयोनियोंमें जन्म मरण किए फिर कर्मानुयोगकर दरिद्रीके घर उपजा जब यह गर्भ में पाया तवही इसका माताने उसके पिताको कर बचन कहकर कलह किया सो उदास होय विदेश गया और इसका जन्म भया बालक अवस्थाही थी कि तब भीलोंने देश के मनुष्य वन्द किये सो इसकी माताभी वन्दीमें गई सर्व कुटुम्ब रहित यह परमदुखी भया कई एक दिन पीछे तापसी होय अज्ञान तपकर ज्योतिषी देवोंमें अग्निप्रभा नामा देव भया और एक समय अनन्तवीर्य केवलीको धर्म में निपुण जो शिष्य तिन्होंने पूछा कैसे हैं केवली चतुरनिकाय के देव और विद्याधर तथा भूमिगोचरी तिनसे,सेवित हे नाथ! मुनिबत नाथके मुक्ति गये पीछे तुम केवलीभए अब तुम समान संसारका तारक कौन होयगा तब उन्होंने कही देश भूषण कुलभूषण होवेंगे केवल ज्ञान और केवल दर्शनके धरणहारे जगत् में सार जिनका उपदेश पायकर लोक संसार समुद्रको तिरेंगे ये वचन अग्निपभने सुने सो सुनकर अपने स्थानक गया इन दिनोंमें कुअवधि कर हमको इस पर्बतमें तिष्ठेजान अनन्तवीर्य केवलीका वचन मिथ्या करूं ऐसा गर्वघर पूर्व बैरकर उपद्रव करने को आया सो तुमको बलभद्र नारायण जान भयकर भाजगया हे राम तुम चरम शरीरी तद्भव मोक्षगामी बलभद्र हो और लक्षमण नारायण है उस सहित तुमने सेवाकरी और हमारे घातिया कर्मके क्षयसे केवल ज्ञानउपजा इसप्रकार प्राणीयोंके वरकाकारण सर्व बैरानुबन्ध है ऐसा जानकर जीवोंके पूर्वभव श्रवणकर हे प्राणीहो रागद्वेष तज निश्चल होवो ऐसे महापवित्र केवीके वचन सुन सुरनर असुर बारम्बार नमस्कार करतेभये और भव दुःखसे डरे और गरुडेन्द्र परम हर्षित होय केवलीके चरणारविदको नमस्कार कर महा स्नेहकी दृष्टि बिस्तारता लहलहाट करे हेमणि कुण्डल जिसके रघुवंशमें उद्योत करणहारे जे राम तिनसों
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