Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराव
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मामा उसके छोरी होयगी ताहि ल्याली मारेगा सो मरकर गाढर होयगी फिर भैंस, भैंस से उसी विलास केवधरा नामा पुत्री होयगी यह वार्ता गुरुनेकही तव सुकेतु सुनकर गुरुको प्रणामकर तापसियोंके श्राश्रम
या जिस भांति गुरुने कहीथी उसही भांति तापससों कही और उसी भांति भई । वह विधुरा नामा बिलास की पुत्रीको प्रवरनामा श्रेष्ठी पर लगा तब अग्निकेतु ने कही यह तेरी रुचिरानामा पुत्री सो मर कर अजा गाडर भैंस होय तेरे मामा के पुत्री भई अब तू इसे परने सो उचित नहीं और विलास कोभी सर्व वृत्तान्त कहा कन्याके पूर्वभव कहे सो सुनकर कन्याको जातिस्मरण भया कटुम्बसे मोह तज सर्व सभाको कहतीभई यह प्रवर मेरा पूर्व भवका पिता है सो ऐसा कह ध्यार्थिका भई और अनिकेतु तापस मुनिया यह वृत्तान्त सुनकर हम दोनों भाइयोंने महा वैराग्यरूप होय अनन्तवीर्य स्वामीके निकट जैनेन्द्र अङ्गीकार किये मोहके उदयकर प्राणियों के भवबन के भठकावनहारे अनेक अनाचार होय हैं सद्गुरुके प्रभावकर अनाचारका परिहार होय है संसार असार है माता पिता बांधव मित्र स्त्री संतानादिक तथा सुःख दुःखही विनश्वर हैं ऐसा सुनकर पक्षीभव दुखसे भयभीत भया धर्म ग्रहण की वांच्छा कर बारम्बार शब्द करताभया तब गुरुने कही हे भद्र भय मत करे श्रावकके व्रत लेघो जिसकर फिर दुख की परम्परा न पावे व तू शांतभाव घर किसी प्राणीको पीड़ा मत करे अहिंसा व्रत घर मृषा बाणी तज सत्य त आदर पर वस्तुका ग्रहण तज परदारा तज तथा सर्वथा ब्रह्मचर्य भज तृष्णा तज सन्तोष भज रात्री भोजनका परिहार कर अभक्ष आहार का परित्याग कर उत्तम चेष्टा का धारक हो और त्रिकाल संध्या में जिनेन्द्र का ध्याम घर हे सुबुद्धि उपवासोदि तपकर नानाप्रकार के नियम अंगीकार कर प्रमाद
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