Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराख 11499
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समीप के वृक्ष को स्पर्शे हैं जैसे विद्या विनयवानको स्पर्शे है और हे पतिव्रते यह बनका हाथी मदकर यासरूप हैं नेत्र जिसके सो हथिनी के अनुरागका प्रेरा कमलों के बनमें प्रवेश करे है जैसे अविद्या कहिये मध्यापर उसका प्रेरा अज्ञानी जीव विषयवासना विषे प्रवेशकरे कैसा है कमलोंका बन विकसि रहे कमलदल तिनपर भ्रमर गुंजारकरे हैं और हे हृदबते यह इंद्रनीलमणि समानश्यामवर्ण सर्पबिलसे निकस कर मयूर को देख भाग कर पीछे बिल में धसे है जैसे विवेक से काम भाग भववन में छिपे और देखो सिंद्द केसरी महा सिंह साहसरूप चरित्र इस पर्वत की गुफा में तिष्ठा था सो अपने रथ का नाद सुन निद्रा त गुफा के द्वाराय निर्भय तिष्ठे है और यह बघेरा क्रूर है मुख जिसका गर्व का भरा मांजरे नेत्रों का धारक मस्तक पर घरी है पूंछ जिसने नखों कर वृक्ष की जड़ को कुचरे है और मृगों के समूह दूब के अंकुर तिनके चरित्रको चतुर अपने बालकोंको बीच कर मृगियों सहित गमन करे हैं सो नेत्रों कर दूरही से अवलोकन करते अपने ताई दयावन्त जान निर्भय भए बिचरे हैं यह मृग मरण से कायर सो पापी जीवों के भय से अति सावधान हैं तुम को देख अति प्रीति को प्राप्त भए विस्तीर्ण नेत्र कर बारम्बार देखे हैं तुम्हारे से नेत्र इनके नहीं इस लिये आश्चर्य को प्राप्त भए हैं और यह वन का शूकर अपनी दांतली.
भूमि को विदारता गर्नका भरा चला जाय है लग रहा है कर्दम जिसके और हे गजगामिनी इस वन विषे अनेक जातिके गजों की घटा विचरे हैं सो तुम्हारीसी चाल तिनकी नहीं इसलिये तुम्हारी चाल देख अनुरागी भए हैं और ये चीते विचित्र अंग अनेक वर्ण कर शोभे हैं जैसे इन्द्र धनुष अनेक वर्ण कर सोहे है 'हे कलानिधे यह बन अनेक अष्टापदादि क्रूर जीवों कर भरा है और अति सघन वृक्षों कर भरा है और
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