Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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प के वृक्षों के अग्रभाग में प्राय पड़े है और पत्र पवनसे चंचल हैं सो अत्यंत सोहे हैं हे सुबद्धि पिणि पुराम ॥५ ॥ | इस वन में कहूं इक वृक्ष फलों के भार कर नम्रीभूत होय रहे हैं और कहूं इक नानो रंग केजे पुष्प वेई
भए पट तिनकर शोभित हैं और कहूं इक मधुर शब्द बोलनहारे पक्षी तिनसे शोभित हे हे प्रिये ! इस पर्वत से यह क्रौंचवा नदी जगत् प्रसिद्ध निकसीहै जैसे जिनराजके मुखसे जिनवाणी निकसे, इस नदी का जल ऐसा मिष्ट है जैसी तेरी चेष्टा मिष्ट है, हे सुकेशी इस नदी में पवन से उठे हैं लहर और किनारे के वृक्षोंके पुष्प जलमें पड़े हैं सोअति शोभितहें कैसी है नदी हंसोंके समूह और भागोंके पटलोंसे अति उज्ज्वल है और ऊंचे शब्दकर युक्तहै जल जिसका कहूं इक महा विकट पाषाणोंके समह तिन कर विषमहै और हजारों ग्राह मगर तिनसे अति भयंकरहै और कहूं इक अति वेग कर चला श्रावे है जल का जो प्रवाह उसकर दुर्निवार है जैसे महा मुनियोंके तपकी चेष्टा दुर्निवार है, कई इक शीतल बहे है कहीं इक वेगरूपबहे है, कहीं इक काली शिला कहीं इक श्वेत शिला तिनकी कांतिकर जल नील श्वत दुरंग होय रहा है, मानो हलधर हरिका स्वरूप ही है कहीं इक रक्त शिलावोंके किरण की समूह कर नदी आरक्त होय रही है जैसे सूर्य के उदयसे पूर्व दिशा रिक्त होय, और कहीं इक हरितपाषाण के समूह कर जल में हरितता भासे है, सो सिवाल की शंका कर पक्षी पीछे होय जाय रहे हैं। हे कांते वहां कमलों के समूह कर मकरंद के लोभी भ्रमर निरन्तर भूमण करे हैं, और मकरंद की सुगन्धता
कर जल सुगन्ध मय होय रहा है, और मकरन्दके रङ्गोंकर जल सुरङ्ग होय रहाहै, परन्तु तुम्हारे शरीर की | सुगन्धता समान मकरन्द की सुगन्धि नहीं, और तुम्हारेरंग समान मकरन्द को रंगनहीं, मानों तुम कमल
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