Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरात
पर बदनी कहावो हो। सो तुम्हारे मुख की सुगन्धताही से कमल सुगन्धितहें और ये भ्रमर कमलोंको तेज
तुम्हारे मुख कमल पर गंजार कर रहे हैं और इस नदी का जल काहू ठऔर पाताल समान गम्भीर है मानों तुम्हारे मनकीसी गम्भीरताको घरे है और कहूं इक नीलकमलोंकर तुम्हारे नेत्रोंकी छायाको घरे | है और यहां अनेक प्रकारके पक्षियोंके समूह नानाप्रकार क्रीड़ा करे हैं जैसे राजपुत्र अनेक प्रकारकी क्रीड़ा
करेंहे प्राणप्रिये ! इस नदी के पुलिन की बोलू रेत अति सुन्दर शोभित है जहां स्त्री सहित खग कहिये विद्याधर अथवा खग कहिये पक्षी आनन्दसो विवरे हैं हेअखण्डवते यह नदी अनेकविलासको धरे समुद्र की ओर चली जाय है जैसे उत्तम शीलकी धरणहारी राजाओंकी कन्या भरतारके परणवेको जांय कैसे हैं भरतार महा मनोहर प्रसिद्ध गुणोंके समूहको धरे शुभचेष्टा कर युक्त जगत में सुन्दरहें हे दयारूपिनी ! इस नदीके किनारे के वृक्ष फल फूलों से युक्त नानाप्रकार पक्षियोंकर मंडित जलकी भरी कारीघटा समरन सघनशोभाको धरे हैं इसभांति श्रीरामचन्द्रजी प्रतिस्नेह के भरे वचन जनकसुतासे कहतेभए परम विचित्र अर्थको धरे तब वह पतिव्रता अति हर्षके समूहसे भरी पतिसे प्रसन्न भई परम आदरसे कहतोभई हे करुणा निधे यह नदी निर्मल है जल जिसका रमणीक हैं तरंग जिममें हंसादिक पक्षियों के समूह कर सुन्दर है परन्त जैसा तम्हारा चित्त निर्मल है तैसा नदीका जल निर्मलनहीं और जैसे तम सघन और सगन्ध हो तैसा बन नहीं औरजैसे तुम उच्च और स्थिरहो तैसा गिरिनहीं और जिनका मन तुममें अनुरागी भया
हैतिनका मन और और जाय नहीं इसभांति राजसुताके अनेक शुभ वचन श्रीराम भाई सहित सुन कर | अति प्रसन्न होय इसकी प्रशंसा करतेभये कैसे हैं राम रघुवंश रूप आकाशमें चन्द्रमा समान उद्योतकारी
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