Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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और जिसके पीछे पर्वतसो कर्वद और समुद्र के समीपसी द्रोणमुख इत्यादि अनेक रचनाकर शोभित वहां ५६॥ ककुंडल नामानगर महामनोहर उसमें इस पक्षीका जीव दंडक नामाराजांथा महाप्रतापी उदय घरे
पद्म पुराव
प्रचंड पराक्रर्म संयुक्त भग्न किये हैं नुरूप कंटक जिसने महामानी बड़ी सेना का स्वामीसो इस मृह ने की श्रद्धा पापरूप मिश्रया शाखा सेया जैसे कोई घृतका अर्थी जलको मथे इसकी स्त्री. मंडियों hi सेवकी तिनसी प्रति अनुरागिणीसों उसके संगकर यहभी उसके मार्गको घरताभया स्त्रियोंके क्श हुवा पुरुष क्या न करे एक दिवस यह नगरके बाहिर निकसासी बनमें कायोत्सर्ग घरे ध्यानारूढ मुनि देखे तब इस निर्द मुनिके कंठ विषे मूवा सर्व द्वारा कैसा था यह पाषाणसमान कठोरथा वित्त जिस का सो मुनि ध्यान घरे मानसो तिष्ठे और यह प्रतिज्ञा करी जलम मेरे कंउसे कोई सर्प दूर न करे तौल में हलन चलन नहीं कर घोगरूपही रहूँ सो काढूने सर्प दूर न किया मुनि खंडेही रहे फिर कैयक दिनोंमें राजा उसी मार्गगया उसही समय किसी भले मनुष्यने सांप काटा और मुनिके पास वह बैठा था सो राजाने उस मनुष्यसे पूछा कि मुनिके कंठसे सांप किसने काढा और कब काढ़ा तब उसने कही है नरेंद्र किसी नरकगामीने ध्यानारूढ़ मुनिके कंठविषे मूवा सर्प डाराथा सो सर्पके संयोग से साधुका शरीर प्रतिखेद खिन्न भया इनके तो कोई उपाय नहीं आज सर्प मैंने काढा है तब राजा मुनिको शांत स्वरूप कषायरहित जान प्रमासकर अपने स्थानकगया उस बिनसे मुनियों की भक्ति विष अनुराग भया और किसीको उपद्रव न करें तब यह वृतांत राखीने दंडियों के मुखसे सुनाकराजा जिनधर्मका अनुरामभिया तब पापनीने क्रोधकर मुनियोंके मारने का उपाय किया जे दुष्टजीनों बे
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