Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पा पुराण
॥५५७॥
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तिनके एक विद्याभ्यासही का कार्य विद्यागुरुसे अनेक विद्या पढी सर्वकलाके पारगामी होय पितापै भए सो पिता इनको महाविद्वान सर्व कला निपुण देखकर प्रसन्नभया । पंडितको मनवांछित दान दिया यह कथा केवली रामसे कहे हैं वे देशभूषण कुलभूषण हम हैं सो कुमार अवस्था में हमने सुनी जो पिताने तुम्हारे बिवाह के अर्थ र जकन्या मंगाई हैं । यह वार्ता सुनकर परम विभूति घरे तिन की शोभा देखने को नगर बाहिर जायवे के उद्यमी भए सो हमारी बहिन कमलोत्सवा कन्या झरोखे में बैठी नगरकी शोभा देखथी सो हमतो विद्या के अभ्यासी कभी किसीको न देखा न जाना हम न जाने यह हमारी बहिन है अपनी मांग जान विकाररूप चित्त किया दोनों भाइयों के चित्त चले दोनों परस्पर मन में विचार भए इसे मैं पर दूजा भाई परणाचा है तो उसे मारूं सो दोनों के चितमें विकार भाव और निदई भाव भया उसही समय बन्दीजनके मुखसे ऐसा शब्द निकसा किराजा क्षेमंकर विमला राणीसहित "जयवन्त होवे जिसके दोनों पुत्र देवन समान और यह झरोके में बैठी कमलोत्सवा इनकी बहिन सरस्वती समान दोनों बीर महागुणवान और बहिन महा गुणवंती ऐसी सन्तान पुण्याधिकारियों के ही होय है जब यह वार्ता हमने सुनी तब मनमें बिचारी अहो देखो मोह कर्म की दुष्टता जो हमारे बहिनकी अभिलाषा उपजी यह संसार असार महा दुःखका भरा हाय जहां ऐसा भाव उपजे पापके योग से प्राणी नरकजांय वहां महादुःख भोगें यह विचारकर हमारे ज्ञान उपजा सो वैराग्यको उद्यमी भए । तब माता पिता स्नेहसे व्याकुल भए हमने सबसे ममत्व तज दिगम्बरी दीचा आदरी श्राकाशगामिनी रिद्धिसिद्ध भई नानाप्रकारके जिन तीर्थादिमें बिहार किया तपही है घन जिनके और माता पिता
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