Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥५९९५
बृथा क्लेश करे हैं मुनि थकी जैसा जिनधर्म का स्वरूप सुनाथा तैसा ब्राह्मणी को कहा कैसा है ब्राह्मण पुराण | निर्मल है चित्त जिस का तब ब्राह्मणी सुनकर कहती भई मैंने भी अपने में तुम्हारे प्रसाद से जिन
धर्म की रुचि पाई और जैसे कोई विष फल का अर्थो महा निधि पावे, तैसे ही तुम काष्ठादिक के अर्थो धर्म इच्छा से रहित श्रीअरिहंत का धर्म रसायन पाया अबतक तुमने धर्म न जोना अपने प्रांगन में पाए सत्पुरुष तिनका निरादर किया उपवासादिक खेद खिन्न दिगम्बर उनको कभीभी श्राहार न दिया इन्द्रादिक कर वन्दनीक जे अरिहन्तदेव तिनको तजकर ज्योतिषी व्यन्तरादिकको प्रणाम किया जीव दयारूप जिनधर्म अमृततज अज्ञानके योगसे पापरूप विषका सेवन किया मनुष्यदेह रूप । रत्नदीप पाय साधुवों को परखा धर्म रूपरत्न तज विषय रूप कांचका खंडअंगीकार किया जे सर्वभक्षी
दिवस रात्रि पाहारी, अवती, कुशीली तिनकी सेवाकरी भोजनके समय अतिथिश्रावे औरजो निरबुद्धि | अपने विभव प्रमाण अन्नपानादि न दे उसके धर्म नहीं अतिथि पदका अर्थ तिथि कहिए उत्सव के | दिन तिनविषे उत्सव तज जिसके तिथि कहिए विचार नहीं और सर्वथा निस्पृह घर रहित साधु सो अतिथि कहिये जिनके भाजन नहीं करही पात्र हैं वे निग्रंथ श्राप तिरे औरों को तारे अपने शरीर में भी निस्पृह किसी वस्तु में जिनका लोभ नहीं निरपरिग्रही मुक्ति के कारण जे दरा लक्षण तिन कर शोभित हैं इस भांति ब्राह्मणी ने धर्मका स्वरूप कहा और सुशर्मानामा ब्राह्मणी मिथ्यात्व रहित होती भई जैसे चन्द्रमा के रोहिणी शोभे और बुध के भरणी सोहे तैसे कपिल के सुशर्मा शोभतीभई ब्राह्मण ब्राह्मणीको उसी गुरू के निकट लेाया जिसके निकट आप ब्रत लिएथे सो स्त्री कोभी श्रावकाके व्रत
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