Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुरास
॥५४॥
वान मुनिके निकटगए कैसे हैं मुनिरागद्वेषरहित शांत भई हैं इंद्रिय जिनकी शिलापर विराजमान निर्भय अकेले जिन कलपी अतिवीर्य मुनींद्र महातपस्वी ध्यानि मुनिपदकी शोभासे संयुक्त तिनको देख भरत आश्चर्यको प्राप्तभया फूलगएहैं नेत्र कमल जिसके रोमांच होयगए हाथ जोड नमस्कारकर साधुके चरणारबिन्दकी पूजाकर महा नमीभूत होय मुनिभक्ति विषे है प्रेम जिसका सो स्तुति करता भया हे नाथ ॥ परमतत्वके वेत्ता तुमही इसजगत विषेशूरवीरहो जिन्होंनेयह जैनेंद्री दीक्षा महादुद्धरधारी जेमहंत पुरुष । विशुद्ध कुलमें उत्पन्नभए तिनकी यही चेष्टाहै इस मनुष्य लोकको पाय जो फल बडे पुरुष बांछे हैं सों श्रापने पाया और हम इस जगतकीमायाकर अत्यन्त दुखी हैं हे प्रभो हमारा अपराध क्षमाकरो तुम कृतार्थ हो पूज्यपदको प्राप्तभए तुमको बारम्बार नमस्कारहो ऐसा कहकर तीन प्रदक्षिणादेय हाथ जोड नमस्कारकर मुनि संबंधी कथा करता २ गिरिसे उतर तुरंगपर चढ हजारों सुभटोंकर संयुक्त अयोध्या में श्राया समस्त राजाओं के निकट सभामें कहा कि वे नृत्यकारनी समस्त लोकों के मनको मोहित करनी अपने जीवित विष भी निर्लोभ प्रबल नृपोंको जीतनहारी कहां गई देखो आश्चर्यकी बात अति वीर्यके निकट मेरी स्तुति करें और उसे पकडें स्त्री वर्गमें ऐसी शक्ति कहांसे होय जानिएहै जिनशासनकर देवियोंने यह चेष्टाकरी ऐसा चिन्तवन करता हुवा प्रसन्न चित्तभया और शत्रुघन मानाप्रकार के धान्यकर मंडित जो धरा उसके देखनेको गया जगतमें व्याप्तहे कीर्ति जिसकी फिर अयोध्या आया परम प्रतापको धरे और राजाभरत अतिवीर्य की पुत्री विजय सुन्दरी सहित सुख भोगता सुखसों तिष्ठे जैसे सुलोचना सहित मेघेश्वर तिष्टा यह तो कथा यहांही रही आगे श्रीरामलक्ष्मणका वर्णन करे हैं।
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