Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्य
पुरामा
॥५३॥
धरूंगा समुद्र पर्यन्त पृथिवी का वश करणहारा महामान का धारी जो मैं सो कैसा पराया सेवकहोय । राज्यकरूं इस में पुरुषार्थ क्या और यह राज्य क्या पदार्थ जिन पुरुषोंने षट खंडका राज्य किया वे भी। तृप्तनभए तो मैं पांच ग्रामोका स्वामी कहांअल्प विभूबिकर तृप्त होऊंगा जन्मातरमें कियाजो कर्मउसका प्रभाव देखो जो मुझे कांति रहित किया जैसेराहुचन्द्रमा को कांति रहित करे यह मनुष्य देह सारभूत देवों से भी अधिक मैं वृथाखोई नवांजन्म धरनेको कायर मैं सो तुमने प्रतिबोधा अब ऐसी चेष्टा करूँजिस से मुक्ति प्राप्तहोय इस भांति कहकर श्रीराम-लक्षमणको क्षमा कराय वह राजामति बीर्य केसरीसिंह जैसाहै पराक्रम जिसका श्रुतधर नामा मुमीश्वर के समीप हाथ जोड नमस्कार कर कहता भया हे नाय दिगंबरी दीक्षा वांहूं तब प्राचार्य ने कहा यही बात योग्य है यह दीक्षा से अनन्त सिद्धभए
और होवेंगे तबअतिवीर्य बस्त्रतज के कोलुन्च कर महाव्रत का धारीभया अात्मा के अर्थ विषे मग्न रागादि परिग्रहका त्यागी बिधि पूर्वक तपकरता पृथिवीपर विहार करता भया जहांमनुष्यों का संचार नहीं वहां रहे सिंहादि क्रुरजीवोंकरयुक्त जो महागहन वन अथवा गिरि शिखर गुफादि तिनमें निर्भय निवास करे ऐसे अतिवीर्य स्वामीको नमस्कारहोवे तजाहै समस्त परिग्रह की आशा जिन्होंने और अंगीकार किया है चारित्रका भार जिहोंने महा शील के धारक नानाप्रकार तपकर शरीरको शोषणहारे प्रशंसा योग्य महामुनि सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र रूपसुन्दरहैं भाभूषण और दशोंदिशाही वस्त्र जिनके साधवों केजे मूलगुण उत्तरगुण वेही संपदाकर्म हरिबेको उद्यमी संजमीमुक्तिके वरयोगीन्द्र तिनको नमस्कारहावे यह अतिवीर्य मुनि का चारित्र जो सुबुद्धि पढ़ें सुनें सो गुणों की वृद्धि को प्राप्त होय भानु समान तेजस्वी होंग और संसार के कष्टसे गिवृत होय ॥ इति सैंतिसवां पर्व संपूर्णभया ।
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