Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
पुराया
॥५४१॥
अथानंतर वे रामलक्षमण सर्वलोकको आनन्दके कारण कईएक दिन पृथ्वीधरके पुरमै रहे जानकीसहित मंत्रकर आगे चलनेको उद्यमीभए तबसुंदर लक्षणकी घरनहारी बनमाला लक्षमणसे कहती भई नेत्र सजलहोय गए हे नाथ में मंदभागिनी मुझे आपतज जावोहो तो पहिले मरणसे क्यों बचाई तबलक्षमण बोले हे प्रिये तू विषादमतकरे थोडे दिनोंमें तेरे लेनेको आगे हे सुन्दरबदनी जो तेरे लयवेको शीघ्र न आवे तो हमको वह गति हो जो सम्यकदर्शन रहित मिथ्या दृष्टिकी होयहै हे बल्लभेजोशीघ्रही तेरे निकट न आवे तो हमको वह पापहो जो महामानकर दग्धसाधुवोंके निंदकोंको होय है हे गजगामिनीहम पिताके बचन पालिवे निमित्त दक्षिणके समुद्रके तीर निसंदेह जाय, मलयाचलके निकट कोई परम । स्थानककर तुझे लेने आवेंगे हे शुभमते तू धीर्य रख इसभांति कहकर अनेक सौगंधकर अति दिलासा । देय अाप सुमित्रा के नन्दन लक्ष्मण श्रीराम के संग चलने को उद्यमी भए लोकों को सूते जान ।
रात्रि को सीता सहित गोप्य निकसे प्रभात में इनको न देखकर नगर के लोक परम शोकको प्राप्त भए राजा को अति शोक उपजा बनमाला लक्षमण बिना घर सूना जानती भई अपना चित्त जिन शासन में लगाय धर्मानुराग रूप तिष्ठी राम लक्षमण पृथिवीपर बिहार करते नर नारियोंको मोहते। पराक्रमी पृथिवी को आश्चर्य के कारण धीरे धीरे लीला से बिचरे हैं जगत के मन और नेत्रों को । अनुराग उपजावते रमे हैं इनको देख लोक विचरे हैं कि यह पुरुषोत्तम कौन पवित्र गोत्र में | उपजे हैं धन्य है वह माता जिसकी कुक्षि में ये उपजे और धन्य हैं वे नारी जिनको ये परणे ऐसा रूप देवों। को दुर्लभ यह सुन्दर कहां से आए और कहां जाय, इनके क्या वांछाहै परस्पर स्त्रीजन ऐसीवार्ता करे ।
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