Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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सो मेरे मृत्यु का चिन्ह दीखे है, ऐसा विचार विषाद को प्राप्त भया।सो एकस्री नाना प्रकार केाभरण पुराण ५९० पहरे देखी उस के निकट जाय पछतो भया। हे भटें यह कौन की पुरी है तब वह कहती भई यह राम की
पुरी है तें ने क्यों न सुनी जहां राम राजा जिसके लक्ष्मण भाई, सीता स्त्री और नगर के मध्य यह बड़ा मन्दिर है शरद के मेघ समान उज्वल जहां वह पुरुषोत्तम विराजे हैं कैसा है पुरुषोत्तम लोक विषे दुर्लभ है दर्शन जिस का सो उसने मनवांछित द्रव्य के दान से सब दरिद्र लोक राजाओं के समान किये तब ब्राह्मण बोला हेसुन्दरी कौनउपाय कर उसे देखें सो तू कहो ऐसे काष्ठकाभार डारकर हाथ जोड़ उसके पायन पड़ा। तब वह सुमायानामा यक्षनी कृपा कर कहती भई, हे विप्र इस नगरी के तीन द्वार हैं। जहां देवभी प्रवेशन करसके बड़े बड़े योधा रक्षक बैठे हैं रात्रिमें जागे हैं जिनके मुखसिंह गजव्याघ तुल्य हैं तिन से भय को मनुष्य प्राप्त होय हैं, यह पूर्व द्वार है जिस के निकट बड़े बड़े भगवान् के मंदिर हैं मणि के तोरणों से मनोग्य तिन में इन्द्र कर वंदनीक अरिहंत के बिम्ब विराजे हैं और जहां भव्यजीव सामायिक आदि स्तवन करे हैं और जो नमोकारमंत्र भाव सहित पढे हैं सो भीतर प्रवेश कर सके हैं। जो पुरुषअणुव्रत का धारी गुणशील से शोभित है उसको रामपरम प्रीतिकर वांछे हैं। यह वचन यक्षनीके अमृतसमान सुनकर ब्राह्मण परम हर्ष को प्राप्त भया । धन आगम का उपाय पाया यक्षनी की बहुत स्तुति करी रोमांच कर मंडित भया है सर्वअंग जिसका सोचारित्रशूर नामा मुनिके निकट जाय हाथ जोड़ नमस्कार
कर श्रावक की क्रिया का भेद पूछता भया। तब मुनिने श्रावक का भेद इसे सुनाया चारों अनुयोग | का रहस्य बताया सो ब्राह्मण धर्म का रहस्य जान मुनि की स्तुति करता भया । हे नाथ तुम्हारे उपदेश से |
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