Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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या
मेरे ज्ञान दृष्टि भई जैसे तृषाबान को शीतल जल और ग्रीष्म के तोप कर तप्तायमान पंथी को छाया YM और क्षुधावान को मिष्टान्ह और रोगी को औषधि मिले तैसे कुमार्ग में प्रतिपन्न जो में सो मुझे तुम्हारा
उपदेश रसायन मिला जैसे समुद्र के मध्य डूबते को जहाज़ मिले। में यह जैन का मार्ग सर्व दुःखों का दूर करणहारा तुम्हारे प्रसाद से 'पाया जो अविवेकियों को दुर्लभ है तीन लोक में मेरे तुम समान कोऊ हित नहीं जिन कर ऐसा जिनधर्म पाया । ऐसा कहकर मुनि के चरणारविन्द को नमस्कार कर ब्राह्मण अपने घर गयाअति हर्षित फूल रहे हैं नेत्र जिस के स्त्री से कहता भया हे प्रिये मैंने आज गुरु के निकट अद्भुत जिनधर्म सुना है जो तेरेबापने अथवा मेरेबापने अथवा पिता के पिताने भी न सुना और हे ब्राहणी मेंने एक अद्भुत बन देखो उसमें एक महा मनोग्य नगरी देखी जिसे देखे आश्चर्य उपजे परन्तु मेरे गुरुके उपदेश से आश्चर्य नहीं उपजे है तब ब्राह्मणी ने कही हे विप्र तें क्या क्या देखा और क्या सुना सो कद्दो तब ब्राह्मणने कही हे प्रिये में हर्ष थकी कहने समर्थ नहीं तब बहुत अादर कर ब्राह्मणीने बारम्बार पूछा तब ब्राह्मण ने कही हे प्रिये में काष्ठ के अर्थ वन में गया हुवा था, सो वन में एक महा रमणीक रामपुरी देखी उस नगरी के समीप उद्यान में एक नारी सुन्दरी देखी सो वह कोई देवता होयगी महा मिष्ट वादिनी में ने पूछा यह नगरी किस की है तब उसने कही यह रामपुरी है, जहां राजाराम श्रावकों को मन वांछित धन देवे हैं। तब में मुनि पै जाय जैन वचन सुने सो मेरा आत्मा बहुत तृप्त भया मिथ्यादृष्टि कर मेरा श्रोत्मा अाताप युक्त था सो अाताप गया जिस धर्मको पायकर मुनिराज मुक्ति के अभिलाषी | सर्व परिग्रह तज महा तप करे हैं सो वह अरिहंत का धर्म त्रैलोक्य में एक महानिधि में पाया ये वहिर्मुखजीव )
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