Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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४५१६॥
सेजपर आपको देखा और मंदिरमहामनोहर वहुत खणका अति उनल और सम्पूर्ण सामग्रीकर पूर्ण
और सेवकसुन्दर बहुतआदर के करनहारेनगरमरमणीक शब्द कोटदरवाजयों कर शोभायमान वे पुरषोत्तम महानुभाव तिनका चित्त ऐसे नगरको तत्काल देख श्राश्चर्यको न प्राप्त भया यह शुद्र पुरुषों की चेष्टा है कि अपूर्ववस्तु कोदेख आश्चर्य को प्राप्त होंय । समस्त वस्तु कर मण्डित वह नगर वहांवें सुन्दर चेष्टा के धारक निवास करते भए मानो ये देव ही हैं । यक्षाधिपती ने राम के अर्थ नगरो रचो। इस लिये पृथिवी पर रामपुरी कहाई उस नगरी में सुभट मन्त्री द्वारपाल नगरके लोग अयोध्या समान होते भए। राजा श्रोणिक गौतमस्वामी को पूछेहैं हेप्रभो येतो देवकृतनगरी में विराजे और उसब्राह्मणकीक्या बातसो कहो तब गणधरबोले वहब्राह्मण अन्यदिन दांतला हाथमेलेय बनमेंगया लकड़ी दंढतेअकस्मात् ऊंचे नेत्र किये निकटहीसंदरनगर देखकरआश्चर्यको प्राप्त भया । नानाप्रकारके रंग की ध्वजा उनकर शोभित शरद के मेघ समान सुंदर महिल देखे और एक राजमहिल महा उज्ज्वल मानो कैलाश काबालक है सोऐसा देखकरमनमें विचारताभया कि यहअटवी मृगोंसे भरी जहां मेंलकडीलेनेनिरन्तर पावताहुं सोयहां रत्नाचल समान सुन्दर मन्दिरों से संयुक्त नगरी कहां से बसी सरोवर जल भरे कमलों से शोभित दीखे है जो में अब तक कभी न देखे, उद्यान महा मनोहर जहां चतुर जन क्रीड़ा करते दोखहैं और देवालय महा ध्वजावों कर संयुक्त शोभे हैं और हाथी घोड़े गाय भैंस तिन केसमूह दृष्टिावे हें । घण्टादिक के शब्द होय रहे हैं यह नगरी स्वर्ग से आई है अथवा पातालसे निसरीहै कोई महाभाग्य के निमित्त यह स्वप्न है अक प्रत्यक्ष है अक देवमाया है अक गन्धों का नगर है । अक मैं पित्त कर व्याकुल भया हूं इस के निकटवर्ती जो में
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