Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न मुझेदेख भागे है तब रामबोले इसको विश्वास उपजाय शीघ्र लावो तब सेवकजन दौड़े दिलासादेय लाए १२२॥ || डिगताऔर कांपता पाया निकटवायभयसजदोनों भाइयोंके आगे भेटमेल स्वस्ति ऐसाशब्द कहताभया
और प्रतिस्तवन पढ़ताभया तब गम बोले है द्विज तैमे हमको अपमानकर अपने घरसे काढ़े थे अब क्यों पूजे है तन विप्र चोला हे देव तुम प्रछन्न महेश्वरहो में अज्ञानसे न जाने इसलिए अनादर कियाजैसे भस्म से दबी अग्नि जानी न जाय,हे जगनाथ! इसलोककी यही रीतिहै । धनवानको पूजिएहै सूर्य शीतऋतु में तापरहित होयह सो उससे कोई नहीं शंके है अब मैं जाना तुमपुरुषोत्तमहोहे पद्मलोचन! ये लोक द्रव्य । को पुजे हैं पुरुषको नहीं पूजे हैं जो प्रर्यकर युक्तहोय उसे लौकिकजन माने हैं और परम सजनहे और। धनरहितहै तो उसे निप्रयोजन जनजान न माने हैं तब रामबोले हे विम जिसके अर्थ उसके मित्र जिस के अर्यउसके भाई जिसके अर्थसोई पंडित अर्थविनान मित्रन सहोदरजोअर्थकरसंयुक्तहै उसके परजनभी निज होयजायहैं और घनवहीजोधर्मकरयुक्त और धर्मवही जोदयाकरयुक्त और दयावही जहांमांसभोजन कात्यागजब जीवोंका मांस तजातब अभक्ष्यका त्याग कहिए उसके और त्याग सहजही होय मांस के त्याग बिना और त्यागशोभे नहीं ये वचन रामके मुन विप्र प्रसन्नभया और कहताभया हे देव जो तुम सारिखे पुरुषोंको महापुरुष पूजिये हैं तिनका भी मूढलोक अनादर करे हैं आगे सनत्कुमार चक्रवर्तीभए बड़ी शद्धिके धारी महारूपवान जिनका रूपदेव देखने आए सो. मुनि होय कर श्राहारको ग्रामादिक में गए महासाचार प्रवीणसो निरन्तराममिका को न प्राप्त होते भए एक दिवस विजयपुर नाम नगर में एक निर्धन मनुष्यके आहार लिया उसके पंचाश्चर्यभए हे प्रभो में मंदभाग्य तुम सारिख पुरुषों का
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