Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥४०॥
| पर पड़ें मानों चक्रसङग गदादिकहें तिनसे विदोरे जावे छिद गएँ नासिका कर्ण कंघ जंघा मादि
शरीरके अंग जिनके नरकमें महाविकराल महादुखाई पवनहे और रुधिरके करण बरसे हैं जहांघानी में पेलिये हैं और क्रूर शब्द होयहें तीक्ष्याथूलोंसे भेदिये हैं महा विलापके शब्द करे हैं औरशाल्मली || वृत्तोंसे घसीटिरहें और महामुद्गरोंके पातसे कुटिएहें मोर जब तिसाए होवहें तब जलकी प्रार्थना
करे हैं तब उन्हें तांबा मलाकर प्यावें हें इससे वेहमहादग्धायमानहोयहे उसकर महादुखी होयहें और कहे | है कि हमें तृष्णानहींबोफिरजबरदस्तीसे इनकोपवीपर पहारकर उपरपग देय संडासियोंसे मुखफाडताता | तांबा प्यावे हैं उससे कंठ मी वग्ध होयहै और हृदयभी दग्ध होयहै नारकियों को नारकियों का अनेक प्रकारका परस्पर दुख तथा भवनबासी देवजे असुरकुमार तिनसे करवाया दुख सो कौन बरणन करसके नरक में मधमांस के भक्षण से उपजाजो दुख उसे जानकर मधमांस का भक्षण सर्वथा तजना ऐसे मुनि के वचन । मुन नरक के दुख से डरा है मन जिसका ऐसाजोकुण्डलमण्डित सोयोलानाथ! पापी जीव तो नरकही के || पात्र हैं और जे विवेकी सम्यकदृष्टि श्रावक के प्रत पाले हैं तिनकी क्यागति है तब मुनि कहते भए जे दृढ़बत सम्यक दृष्टि श्रावक के व्रत पाले हे वे स्वर्ग मोच के पात्र होय हैं और भी जे जीव मद्यमांस शहत का त्याग करे, वे भी कुगति से बचे हैं जे अभक्ष्यका त्याग करे हैं सो शुभगति पावे हैं जो उपवासादिक रहित हैं और दानादिक भी नहीं बने है परन्तु मद्यमांस के त्यागी हैं तो भले हैं औरजो कोई शील प्रत मण्डित है और जिनशासनका सेवक है और श्रावक के व्रत पाले है तिसका क्यापूछना सो तो सौधर्मादि स्वर्ग में उपजे ही हैं अहिंसाबत धर्मका मूल कहा है अहिंसा मांसाविक के त्यागी के
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