Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराख
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जिस में और मोह रूप कीच कर मलिन कुतर्करूप आहों कर पूर्ण महादुःख रूप लहर उठे हैं निरन्तर जिसमें, मिथ्यारूप जल कर भरी मृत्युरूप मगरमच्छों का है भय जिसमें रुदनके महाशब्दको घरे, अधर्म प्रवाह कर वहती अज्ञानरूप पर्वत से निकसी संसार रूप समुद्र में है प्रवेश जिस का सो अब में इस भवनदी को उलंघकर शिवपुरी जायवे का उद्यमी भयाहूं तुम मोह के प्रेरे कछु वृथा मत कहो संसार समुद्र तर निर्वाण दीप जाते अन्तराय मत करो जैसे सूर्य के उदय होते अंधकार न रहे तैसे सम्यक ज्ञान 'के होते संशय तिमिर कहांरहे इसलिये मेरे पुत्र को राज्य देवो अव ही पुत्र का अभिषेक करावो में तपोवन में प्रवेश करूं हूं ये वचन सुन मंत्री सामंत राजा को वैराग्य का निश्चय जान परमशोक को प्राप्त भए नीचे होय गए हैं मस्तक जिनके और अश्रुपात कर भर गए हैं नेत्र जिन के अंगुरी कर भूमि को कुचरते क्षण मात्र में प्रभारहित होय गए, मौन से तिष्ठे और सकल ही रणवास प्राणनाथ का निर्यन्य व्रत का निश्चय सुन शोक को प्राप्त भया अनेक विनोद करते थे सो तज कर प्रांसुओं से लोचन भर लिए, और महारुदनः किया और भरत पिता का वैसग्य सुन आप भी प्रतियोष को प्राप्त भए, क्ति में चिसक्ने भए ग्रहो यह स्नेह का बन्ध छेदना कठिन है हमारा पिता ज्ञान को प्राप्त भया जिनदीक्षा लेने को.. इच्छे है, अब इनके राज्य की चिन्ता कहाँ, मुझो तो न किसी को कुछ पूछमा न कुछ करना तपोवन में प्रवेश करूगा संयम घरुगा। कैसा है संयम संसार के दुःखों का क्षय करणहारा है और मेरे इस देह कर भी क्या कैसा है यह देह व्याधि का घर है और विनश्वर है सो यदि देहही से मेरा सम्बन्ध नहीं तो । बांधवों से कैसा सम्बन्ध यह सब अपने अपने कर्म फल के भोगता हैं, यह प्राणी मोह. कर अन्धा है |
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