Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुरामा ॥४३॥
सिंहसमान निर्भय सोतप्तायमानजोशिलाउसकरतप्तशरीर ऐसे दुर्जय तीव्रताप का सहनहारा सज्जन सों। ऐसे तपोनिधि साधुको देख वज्रकर्ण तुरंगपर चा बरछी हाथमेंलिये कालसमान महाकर पूछता भयो कैसे हैं साधु गुण रूप रत्नों के सागर परमार्थ के वेसा पापों के घातक सर्व जीवों के दयालु तपो विभूति कर मंडित तिनको वज्रकर्ण कहताभया हे स्वामी तुम इस निर्जन वन में क्या करो हो ऋषि बोले प्रात्म कल्याण करे हैं जो पूर्व अनन्त भवविषे नाचरा, तब वज्रकर्ण हंसकर कहताभया इस अवस्थाकर तुमको क्या सुखहै तुमने तपकर रूपलावण्यरहित शरीर किया तुम्हारे अर्थ काम नहीं बनाभरमानहीं कोई सहाई नहीं स्नान सुगंन्ध लपनादिरहित हो, पराए घरों के आहार कर जीविका पूरी करोहो तुम सारीखे मनुष्य क्या अात्महिताकरें, तब उसकोकाम भोगकर अत्यन्तबार्त्तिवन्तदेखमहादयावान संयमीबोले क्यालेनेमहाघोर नरककी भूमिसुनी हैजोतू उद्यमी होय पापोंविषेप्रीति करे हैनरककी महाभयानकसातभूमिह उमहादुर्गन्धपई देखी न जाय स्पर्शीन. जांय सुनी नजांय, महातीक्षण लोहके कांटोंकर भरी जहां नोरकियों को धानियों मेंपेले हैं अनेक वेदना त्रास होय हैं छुरियों कर तिल २ काटिए हैं और तातेलोहे समान ऊपरले नरकोंका पृथिवी तल और महाशीतल नीचले नरकों का पृथिवी तल उस कर महा पीड़ा उपजै है, जहां महाअन्ध कार मा भयानक रौरवादि गत असिपत्र बन महादुर्गन्ध वैतरणी नदी जे पापी माते हाथियोंकी न्याई निरंकुश हैं वे नरक में हजारां भान्ति के दुख देखे हैं हम तुझे पूछे हैं तो सारीषे पापारम्भी विषयानुरू कहां आत्म हित करे, ये इन्द्रायण के फल समान इन्द्रियोंके सुख त निरन्तर सेय कर सुख माने है, सो इनमें हित नहीं ये दुर्गति के कारणहैं, आत्माका हित वह करे है जो जीवों की दया पाले मुनि के व्रत घरे
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