Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराव
७५०६४
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उस समय तुम्हारी पुत्रियों को भी परण करले आवेगा अब तक हमारे स्थानक नहीं कैसे पाणिग्रहण करें जब इस शांति कही तब वे सब राजकन्या ऐसी होय गई जैसा जाडे का मारा कमलों का बन होय जाय -नमें विचारतीभई वह दिन कब होयगा जबहमको प्रीतमके संगमरूप रसायनकी प्राप्ति होगी और जो कदाचित प्राणनाथका विरहभया तो हम प्राणत्याग करेंगे इन सबका मन विरहरूप अग्नि कर 'जलताभया यह विचारती भई एक ओर महा चौडागर्त औरएक ओर महाभयंकर सिंह क्या करें किधर जावें विरहरूप व्यात्रको पतिके संगमकी आज्ञा से वशीभूत कर प्राणोंको राखेंगी यह चिन्तवन करती • हुई अपने पिता की लार अपने स्थानक गई सिंझेर बजकर्ण आदि सबही नरपति रघुपति की ..आज्ञालेय पाए वे राजकन्या उत्तम चेष्शकी धरणहारी मातापितादि कुटुंबसे अत्यन्त सन्मान जिनका और पति है विश्वजिनका सो नाना विनोद करती पिता के घर में तिष्ठती भई और विद्युदंगने अपने माता पिताको कुटंब सहित बहुत विभूतिसे बुलाए तिनके मिलापका परम उत्सव किया और बज्रक के और विदर के परस्पर प्रतिप्रीति बढी और श्रीरामचन्द्रलक्ष्मण अर्धरात्रिको चैत्यालय से निकलकर चल दिए सो धीरे २ अपनी इच्छा प्रमाण गमनकरे हैं और प्रभातसमय जे लोक चैत्यालय में आए तो श्रीराम को न देख शून्यहृदय होय अति पश्चाताप करते भए । इति तेतीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
श्रथानन्तर रामलचमण जानकीको धीरे २ चलावते और रमणीक बनमें विश्वाम लेते और महा मिष्ट या फलों का रसपान करते क्रीड़ा करते रसभरी बातें करते सुन्दर चेष्टा के घरणहारे चले २ नलकूबर नामा नगर ये कैला नगर नाना प्रकारके रत्नों के जे मंदिर तिनके उतंग शिखरों कर मनोहर और
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