Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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तिनसे विराजितहै प्रभारूप बदन जिसका मानों कारीघटामोवजली के समान चमके है और महासूतम । स्निग्ध जो रोमों की पंक्ति उसकरविराजित मानों नीलमणिसे मंडित सुवर्णकी मूर्तिही है तत्कालना रूप तज नारीका रूपकर मनोहर नेत्रों की धरनहारी सीता के पांयन लाग समीप जाय बैठी जैसे लक्षमी रतिके निकट जाय बैठे सो इसका रूप देख लक्षमण काम कर बींधा गया औरही अवस्था होमई नेत्र चलायमान भए तब श्री रामचन्द्र कन्या से पूछते भए तू किसकी पुत्री है भोर पुरुष काभेष कौन कारण किया त्व वह महामिष्ट वादिनी अपना अंग वस से ढांक कहती भई हे देव मेरा वृत्तान्त सुनो इस नगर का राजा बालखिल्य महा सुद्धि सदा श्राचारवान श्रावक के बत धारक महा दयालु जिन
धर्मीयों पर वात्सल्य अंग का धारणहारा राजाके पृथिवी राणी उसे गर्भ रहा सो में मर्भ में आई और । म्लेच्छोंका जो अधिपति उससे संग्राम. भया मेरा पिता पकड़ा गया सो मेरा पिता सिंहोदरका सेवकसो | सिंहोदरने यह माज्ञाकरी कि जो बालखिल्य के पुतहोय सो राज्यका कर्ताहोय. सो में पापिनी पुत्रीभई तब हमारे मन्त्री सुद्धि.उसने मनसूवाकर राज्य के अर्थ मुक पुत्र ठहराया सिंझेदरको वीनती.लिली कल्याणमाला मेरा नामघरा और बड़ाउत्सवकियासो मेरीमाता और मन्त्री ये तो जाने हैं जो यह कन्याहै
और सब कुमारही जाने हैं सो एते दिनमें व्यतीतकिये अब पुण्यके प्रभाव से भापका दर्शनया मेख पिता बहुत दुःख में तिष्ठे है म्लेछोंकी बन्द में है सिंहोदरभी उसे छुड़ायचे. समर्थ नहीं और जो द्रव्य देश में उपजे है सो सब म्लेक के जाय है मेरी मावा वियोगरूप अग्नि से तमयमान जैसे दूज के चन्द्रमा की मर्ति क्षीणहोय तैसी होयगई है ऐसा कहकर दुःखके मार कर पीड़ित है समस्त गात जिसका सो
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