Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
पुगत
५१३
कंटक सो श्रीराम के प्रतापसे वालखिल्यकाप्राज्ञाकारी सेवकभया ।जब रौद्रभूत वशीभूत भया और म्लेक्षों की विगमभूमि में वालखिल्यकी प्राज्ञाप्रवर्ती तब सिंहोदरभी शंका मानता भया । और अति स्नेह सहित सन्मानकरताभया बालखिल्य रघुपतिकप्रसादसे परमविभूतिपाय जैसाशरदऋतुमें सूर्यप्रकाशकरतेसापृथिवी पर प्रकाश करताभया अपनीराणी सहितदेवों की न्याईरमता भया ॥ इति चौंतीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर वे रामलक्ष्मण दोनों सारिखे मनोहर नन्दन बन सारिखा बन उसमें सुखसे बिहार करते एक मनोग्य देशमें प्राय निकसे जिसके मध्य तापती नदी बहे नानाप्रकारके पक्षियोंके शब्दोंसे सुंदर वहां एक निजन बनमें सीता तृषाकर अत्यन्त खेदखिन्न भई तब पतिको कहती भई । हे नाथ तृषासे मेरा कंठ शोष होयह जैसे अनन्त भवके भूमणकर खेदखिन्न हुआ भव्यजीव सम्यक दर्शनको बांछे तैसे मैं तृषासे व्याकुल शीतल जलको बांहूं ऐसा कहकर एक वृक्ष के नीचे बैठगई तब रामने कही हे देवी हे शुभे तू विषादको मत प्राप्तहोय नजीकही यह अगे ग्राम है जहां सुंदर मंदिर, उठ आगे चल इस ग्राममें तुझे शीतल जलकी प्राप्ति होयगी ऐसा जब कहा तब उठकर सीता चली मंद २ गमन करती गजगामिनी उससहित दोनों भाई अरुगानामा ग्राममें पाए जहां महाधनवान किसानहैं जहां एक ब्राह्मण अग्निहोत्री कपिलनामा प्रसिद्ध उसके घरमें आय उतरे उसकी अग्निहोत्रकी शाला में पण एक बैठ खेद निवारा कपिलकी ब्राह्मणी जललाई सो सीताने पिया वहां बिराजे हैं और बनसे ब्राह्मण वील तथा छीला वा खेजडा इत्यादि काष्ठका भार बांधे आया दावानल समान प्रज्वलित जिसका मन महाक्रोधी कालकट विष समान बचन बोलतामया उल्लुसमानहै मुख जिसका और कर
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