Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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अबतको घारी श्रावक है और जिनेन्द्र मुनिन्द्र जिनसूत्र टार और को नमस्कार नहीं करे है. सो ऐसा घरमात्मा व्रत शील का धारक अपने आगे शत्रु से पीडित रहे तो अपने पुरुषार्थ से क्या सधा, अपना यही धर्म है जो दुखी का दुख निवारें साधर्मी का तो अवश्य निवारें यह अपराघ रहित साघुसेवा में सावधान महाजिनधर्मी उसके लोक जिनधर्मी ऐसे जीवको पीड़ा क्यों उपजे । यह सिंहोदर ऐसा बल बान है जो इसके उपद्रव से वज्रकर्णको भरत भी न वश्चाय सके इसलिये सो हे लक्ष्मण तुम इसकी शीघ्रही सहायता करो सिंहोदर पै जावो और वजू कर्णका उपद्रव मिटे सो करो हम तुम को कहा सिखायें जो यूं कहियो यूं कहियो तुम महा बुद्धिवान् हो जैसे महामणि प्रभा सहित प्रकट होय है तैसे तुम महबुद्धि पराक्रम को घरे प्रकट भए हो, इस भान्ति श्रीराम ने भाई के गुण गाए तब भाई लज्जाकर नीचे मुख होय गए नमस्कार कर कहते भए हे प्रभो जो श्राप श्राज्ञा करोगे सोई होयगा महा विनयवान लक्ष्मण राम की आज्ञा प्रमाण धनुष बाण लेय घरती को कंपायमान करते हुए शीघ्र ही सिंहोदर पै गए सिंहोदरके कटक के रखवारे पूछते भए तुम कौन हो लक्ष्मण ने कही मैं राजा भरत का दूत हूं, तब कटक में बैठने दीया अनेक डेरे उलंघ राजद्वार में गया द्वारपाल ने राजा से मिलाया सो महाबलवान सिंहोदरको तृणसमान गिनतासंता कहता भय हे सिंहोदर अयोध्याका अधिपति भरत उसने यह आज्ञा करी है कि वृथा विरोधकर क्या वजू कर्ण से मित्रभाव करो तब सिंहोदर कहता भया हे दूत तू राजा भरतको इस भान्ति कहियो कि जो अपना सेवक होय और विनयमार्ग से रहित होय उसे स्वामी समझाय सेवा में लावे, इस में विरोध क्या यह वजकर्ण दुरात्मा मानी मायाचारी कृतघ्न मित्रों का निन्दक चाकरीचूक आलसी मूढ विनयचार रहित खोटी
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