Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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NARAYRANA
अथवा श्रावक के व्रत श्रादरे निमल है चित्त जिस का, जेमहाव्रत तथा अणवत नहीं पादरे हैं वै मिथ्यात्व। अबतके योग से समस्त दुखों के भाजन होयहे, तेंने पूर्व जन्म में कोई सुकृत किया था उसकर मनुष्य देह पाया अब पोप करेगा तो दुगंति जायगा ये विचारे निर्बल निरापराध मृगादि पशु अनाथ भूमि ही है शय्या जिन के चंचल नेत्र सदा भय रूप वन के तृणों और जल कर जीवन हारे पूर्व पाप कर अनेक दुखों कर दुखी रात्रि भी निद्रा न करें भयकर महाकायर सोभले मनुष्य असे दोनों को कहाहनें इसलिए जोतू अपना हित चाहे है तोमन क्चन काय कर हिंसा तज, जीव दया अंगीकार कर, असे मुनी के श्रेष्ठ बचन | | सुनकर बजकर्ष प्रतिबोधको प्राप्तभया जैसे फलावृक्ष नयजाय तैसे साधुके चरणारबिन्दको नयाअश्व ! से उतर साधुके निकट गया हाथ जोड़प्रणामकर अत्यन्त बिनयकी दृष्टिकर चित्तमें साधुकी प्रशंसा करता। भया धन्यहै ये मुनि परिग्रहके त्यागी जिनको मुक्तिकी प्राप्तिहोयहै और इस बनके पची और मृगादि, पशु प्रशंसा योग्य, जे इस समाधि स्वरूप साधुका दर्शनकरे हैं और अति धन्य हूं में जो मुझे श्राज। साधुका दर्शनभया ये तीन जगतकर बन्दनीकहै अबमें पापकर्मसे निवृतभया ये प्रभो ज्ञानस्वरूप नखों। कर बन्धु स्नेहमई संसाररूप जो पिंजरा उसे छेदकर सिंहकी न्याई निकसे ये साधु देखो मनरूप बैरी को । बशकर नग्न मुद्राधर शील पाले हैं में अतृप्त आत्मा पूर्ण वैराग्यको प्राप्त नहीं भया इसलिये श्रावक के अणुव्रत अादरूं ऐसा विचारकर साधुके समीप श्रावकके ब्रत प्रादरे और अपनामन शांत रस रूप । जलसे धोया और यह नियम लियाकि देवादिदेव परमेश्वर परमात्मा जिनेंद्रदेव और तिनके दास महा भाग्य निग्रंथ मुनि और जिनबाणी इन बिना औरको नमस्कार न करूं प्रीतिवर्धन नामा वे मुनि तिन
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