Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण
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के निकट बजकर्णने अणुब्रन आदर और उपवास धारे मुनिने इसको बिस्तारकर धर्मका व्याख्यान कहा जिसकी श्रद्धाकर भव्यजीव संसार पाशसे छुटे एक श्रावकका धर्म एक यतिका धर्म इसमें श्रावक का धर्म गृहालवन संयुक्त और यतिका धर्म निरालम्बनिरपेक्ष दोनोंधौंकामूल सम्यक्तकी निर्मलता तप
और ज्ञानकरयुक्त अत्यन्तश्रेष्ठ सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग रूपविषे जिन शासन प्रसिद्धहै यतिकाधर्म अतिकठिन जान अणुव्रत में बुद्धिठहराई और महाब्रतकी महिमा हृदय में धारी जैसे दरिद्रीके हाथमें निधि श्रावे और वह हर्षको प्राप्त होय तैसे धर्मध्यान को धरता संता आनन्द को प्राप्त भया यहअत्यन्त क्रूर कर्म का करण हारा एक साथही शांति दशा को प्राप्तभया इसबातकर मुनि भीप्रसन्नभए राजानेउसदिन तो उपवास किया दूसरेदिन पारणा कर दिगंबरके चरणाराबिंद को प्रणाम कर अपने स्थान को गया गुरुके चरणारविंद हृदयमेधारतासंता संदेह रहितभया अणुव्रतश्राराधे चित्त में यह चिंता उपजी कि उज्जैनी का राजा जो सिंहोदर उसका मैं सेवक हूं उसका विनय किए विनामराज्य कैसे करूंतब विचारकर एक मुद्रिका बनाई उसमें श्रीमुनिसुव्रतनाथ जी की प्रतिमापधगय दक्षिणांगुष्ट में पहिरी जब सिंहोदर के निकट जाय तब मुदिका में प्रतिमा उसेवारंबार नमस्कार करे सो इसका कोई बैरी था उसने यह छिद्र हेर सिंहोदर से कही कि यह तुम को नमस्कार नहीं करे है जिन प्रतिमा को करे है, तब सिंहोदर पापी कोप को प्राप्त भया और कपट कर वनकर्णको दशांग नगर से बुला वता भया, सम्पदाकर उन्मत्त मानी इसके मारवेि कोउद्यमीभया सो वजूकर्ण सरलचिच सो तुरङ्गपरचढ़ उज्जयिनी जावे को उद्यमी भया, उससमय एकपुरुष ज्वानपुष्ट और उदारहे शरीर जिसका दण्ड जिसके
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