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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म पुराण use के निकट बजकर्णने अणुब्रन आदर और उपवास धारे मुनिने इसको बिस्तारकर धर्मका व्याख्यान कहा जिसकी श्रद्धाकर भव्यजीव संसार पाशसे छुटे एक श्रावकका धर्म एक यतिका धर्म इसमें श्रावक का धर्म गृहालवन संयुक्त और यतिका धर्म निरालम्बनिरपेक्ष दोनोंधौंकामूल सम्यक्तकी निर्मलता तप और ज्ञानकरयुक्त अत्यन्तश्रेष्ठ सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग रूपविषे जिन शासन प्रसिद्धहै यतिकाधर्म अतिकठिन जान अणुव्रत में बुद्धिठहराई और महाब्रतकी महिमा हृदय में धारी जैसे दरिद्रीके हाथमें निधि श्रावे और वह हर्षको प्राप्त होय तैसे धर्मध्यान को धरता संता आनन्द को प्राप्त भया यहअत्यन्त क्रूर कर्म का करण हारा एक साथही शांति दशा को प्राप्तभया इसबातकर मुनि भीप्रसन्नभए राजानेउसदिन तो उपवास किया दूसरेदिन पारणा कर दिगंबरके चरणाराबिंद को प्रणाम कर अपने स्थान को गया गुरुके चरणारविंद हृदयमेधारतासंता संदेह रहितभया अणुव्रतश्राराधे चित्त में यह चिंता उपजी कि उज्जैनी का राजा जो सिंहोदर उसका मैं सेवक हूं उसका विनय किए विनामराज्य कैसे करूंतब विचारकर एक मुद्रिका बनाई उसमें श्रीमुनिसुव्रतनाथ जी की प्रतिमापधगय दक्षिणांगुष्ट में पहिरी जब सिंहोदर के निकट जाय तब मुदिका में प्रतिमा उसेवारंबार नमस्कार करे सो इसका कोई बैरी था उसने यह छिद्र हेर सिंहोदर से कही कि यह तुम को नमस्कार नहीं करे है जिन प्रतिमा को करे है, तब सिंहोदर पापी कोप को प्राप्त भया और कपट कर वनकर्णको दशांग नगर से बुला वता भया, सम्पदाकर उन्मत्त मानी इसके मारवेि कोउद्यमीभया सो वजूकर्ण सरलचिच सो तुरङ्गपरचढ़ उज्जयिनी जावे को उद्यमी भया, उससमय एकपुरुष ज्वानपुष्ट और उदारहे शरीर जिसका दण्ड जिसके For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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