Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥४991
में पहुंचे । कैसी है अटवी नाहर और हाथियोंकि समूहाँकर भी महा भयानक गायकर मत्रितमान अंधकारकी भरी जिसके मध्य नदी है उसके तट पाए जहाँ भीलोंका निवास है नाना प्रकारके मिष्ट फलहें आप वहां तिष्ठकर कैएक राजावों को विदा किया और केएक पीछे न फिरे राम ने बहुत कहा तो भी संग ही चले सो सकल नदी को महा भयानक देखते भए कैसी है नदी पर्वतों सों निकसती मझनील है जलजिसका प्रचण्ड लहर जिसमें महाशब्दायमान अनेकने ग्रह ममर सिनकर भरी दोऊ ढांहांविरती कलोलोंके भयकर उडे हे तीर के पदी जझं ऐसीनदी को देखकरसकल सामन्त त्रासकर कंपायमान होय रामलक्षमस कोकरतेभए हेना पाकर हमेंभी पार उतारोहमसेवक भक्तिवंत हमप्रसमावोहे माता जामकी सक्ष्मणसे कहो हमको भीमरससारे इसमोनि-कहले महाभिनेक नरपति माना पेश के करणारे मंदीमें पढ़ने में सब रामबोस नही था तुम पीये पित्रो। यह का। महा मनमक है हमारा तुम्स यहांलमही संगम मिना बरसको सब का स्वामी किया है । भक्ति कर तिनको सेवो तब वे कहते भवे हे माय हमारे स्वामी तुमी हो मा दयावान झेश। प्रसन्न होको हमको मन लोभे तुम बिना यह प्रजा नियमकई पाखता रूप हो कौन की मार || आय तुम समान और कौमहे न्यायसिंह मोरयजेद सादिकका भरा मनामक जो यह मन उसमें तुम्हारे । संम रहो बुम बिना हमें स्वर्गभी सुखकमी नहीं तुम को पीले माझे मो चित्र पिरे नहीं कैसे यह चिन सा इन्द्रियोंका अधिपति इसही से अहिए है जो अद्युत प्रस्तुअमुगा को हमारे मोनोकर क्या घरकर तथा स्त्री कुटम्बादिककर क्या तुम मर स्नहो तुमको बोड कहा जावें प्रभो तुमको बालकीह्य
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