Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
॥४८॥
विषे असा जीव नहीं जिस से मेरे अनेक नाते न भए, थेपुत्र मेरे कईवार पिता भए माता भए शत्रु भए मित्र भए असा स्थानक नहीं जहां में न उपजान मुश्रा ये देह भोगादिक भनित्य इस जगत विषे कोईशरण नहीं, यह चतुर्गति रूप संसारदुःख का निवास है मैं सदाअकेलाहूं ये षद्रव्य परस्पर सबही भिन्न हैं, यह काय अशुचि, मैं पवित्र, ये मिथ्यादि अब्रतादिकर्माश्रवके कारण हैं, सम्यक्तब्रत संयमादि संवर के कारणहैं तपकर निर्जरा होय है यह लोक नानारूप मेरे स्वरूप से भिन्न इस जगत में आत्मज्ञान दुर्लभ है, और वस्तु को जो स्वभाव सोई धर्म तथा जीवदयाधर्म सो में महाभागसेपाया धन्य ये मुनि जिन के उपदेश से मोक्षमार्ग पाया सो अब पुत्रों की कहां चिन्ता, असा विचार कर दशरथ मुनि निर्मोहदशा को प्राप्त भए जिन देशों में पहिले हाथी चढ़े चमर दुरते छत्र फिरते थे और महारण संग्राम में उद्धत बैरीयों को जीते तिन देशों में निम्रन्थ दशा धरे बाईस परीषह जीतते शांतिभाव संयुक्त विहार करते भए और कौशल्या तथो सुमित्रा पति के वैरागी भए और पुत्रों के विदेश गए महाशोकवंती भई निरंतर अश्रुपात डारें तिन के दुःख को देख भरत राज्य विभूति को विषसमान मानता भया और केकई तिनको दुखी देख उपजी है करुणा जिस के पुत्र को कहती भई हे पुत्र ने राज्य पाया बड़े बडे राजा सेवा करे हैं परन्तु राम लक्ष्मण बिना यह राज्यशोभे नहीं सोवे दोऊभाई महाविनयवान् उनबिना कहां राज्य और कहां सुख और क्या देश की शोभा और क्या तेरी धर्मज्ञता वे दोनों कुमार और वह सीता राजपुत्री सदा सुख के भोगन हारे पाषाणादिककर पूरितजोमार्ग इसविषे वाहन बिना कैसे जांवेंगेऔर तिन गुणसमुद्रों की ये दोनों माता | निरंतर रुदन करें हैं सो मरण को प्राप्त हावेंगी इसलिये तुम शीघगामी तुरंगपरचढ़ शितावी जावो उनको
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