Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
| पुण्य के उदय कर ये संसारीजीव देवगति मनुष्यगति के सुख भोगे हैं और पाप के उदय कर नरक तिर्यंच तथा कुमानुष होय दुःख दरिद्र भोगे हैं, ये सर्व लोक अपने अपने उपार्जित जे कर्म तिनके फल भोगे हैं। ऐसे मन में विचार कर राजा दशरथ संसार के वास से अत्यन्त भय को प्राप्तभया निर्वृति के पायबे की है अभिलाषा जिस के, समस्त भोग वस्तुवों से विरक्त भया द्वारपाल को कहता भया। कैसा है। दारपाल भूमि में थापा है मस्तक और जोड़े हैं हाथ जिस ने नपति ने उसे भाज्ञाकरी कि हे भद्र सामंत मंत्रीपरोहित सेनापति आदिसब को ले प्रावो, तब वह दारपाल दारेपर पाय दूजे मनुष्य को दोरपर मेल तिनको आज्ञा प्रमाण बुलावन को गया, तब वे प्रायकर राजा को प्रणाम कर यथायोन्य स्थान में तिष्ठे विनतीकर कहते भए हे नाथ आज्ञा करो क्या कार्य है तब राजाने कही में संसारकात्याग कर निश्चयसेती संयम धरूंगा, तपमंत्रो कहतेभए हे प्रभो तुमकोकोन कारष वैराग्य उपजा, तब नृपतिनेकही कि प्रत्यक्ष यह । समस्त जगत् सूके तृण की न्याई मृत्यु रूप अग्निकर जरे है और जो अभव्यन को अलभ्य और भव्यों को लेने योग्य ऐसा सम्यक्त सहित संयम सो भवतापका हरणहारा और शिवसुख का देनहारा है सुर असुर नर विद्याधरों कर पूज्य प्रशंसा योग्यहै, मैंने आजमुनिके मुख से जिनशासन का व्याख्यान सुना, कैसाहै जिन शासन सकलपापोंका वर्जन हाराहै तीन लोक में प्रकट महा सूक्ष्म चर्चाजिसमेंअतिनिर्मल उपमा रहित है सर्व वस्तुओं में सम्यक्तपरम वस्तु है सोसम्यक्तका मूलजिनशासनहै श्रीगुरुत्रोंके चरणारबिंदके प्रसादकर में निर्वृत्तिमार्ग में प्रवृता मेरी भव भ्रांति रूप नदी की कथा अाज में मुनि के मुखसे सुनी और मुझे जातिस्मरण भया सोमेरे अंग देखो त्रास करकांपे हैं कैसी है मेरी भवभ्रान्तिनदी नानाप्रकारके जे जन्म वेही हैं भ्रमण !
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