Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पम | जो मृत्यु है सो बालबृद्ध तरुणको नहीं देखे है सर्वभक्षी है तुम मुझे वृया काहे को मोह उपजावोहोतब। प्रा राजाने कही हे पुत्र गृहस्थाश्रममें भी धर्म का संग्रह होयहे कुमानुषों से नहीं बने है तब भरतने कही ||
हे नाथ इन्द्रियोंके वशवर्ति काम क्रोधादिककेभरे गृहस्थनको मुक्ति कहां तब भूपतिनकही हे भरत मुनि योंमेंभी सवही तद्भव मुक्ति नहीं होय हैं कईएक होयहें इसलिये तू कईएक दिन गृहस्तधर्म आराध तब भरतने कही हे देव आपने जो कही सो सत्यहै परन्तु जो गृहथियों का तो यह नियमही है कि गृहस्थमें मुक्ति न होय और मुनियोंमें कोई होय कोई न होय गृहस्थधर्मसे परम्पराय मुक्तिहोय साचात नहीं इस लिये यह शक्तिवालोंका काम नहीं है मुझे यह बात न रुचे में महाव्रत धरणकोही अभिलाषी हूं गरुड़ कहां कोगोंकी रीति पाचरे कुमानुष कामरूप अग्निकी ज्वालाकर परम दाह को प्राप्तभए संते स्पशइंद्रियों
और जिहा इन्द्रियकर अधमकार्य करे हैं तिनको निवृत्ति कहाँ पापी जीव धर्मसे विमुख भोगनको सेय कर निश्चय सेती महा दुःख दाता जो दुगति उसे पास होय हैं ये भोग दुर्गतिके उपजावनहारे और राखे न रहे क्षणभंगुर इसलिये त्याज्यंही हैं ज्योज्यों कामरूप अग्निमें भोगरूप ईंधन डारिये त्योत्यों अत्यंत तापकीकरणहारीकामाग्नि प्रज्वलितहोयहै इसलिये हेतात तुममुझे मोबादेवोजोबनमें जाय विधिपूर्वकतप । करूं जिनभाषित तप परम निर्जराका कारमाहे इससंसास्से में प्रतिभयको प्रावमयाहूं और हे प्रमोजो घरहीम कल्याण होय तो तुम काहेको घरतज मुनि हुत्रा चाहाहो तुम मेरे तातहो सो तातका यहीधर्म है किसंसारसमुद्रसे तारे तपकी अनुमोदना करे यह बात विवचम्म पुरुष कहे हैं शरीर स्त्री धन मातापिता भाईसकलको वज यह नीव अकेलाही परलोकको जायो विरकाच देवलोकके सुख भोगे तोभी यह वृष ।
For Private and Personal Use Only