Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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तुम राम लक्ष्मणका एता प्रभावही कहोहो और वृथा गरजगरज बात करो हो सो हमारे उन के पुराख बल पराक्रमकी प्रतीति नहीं इसलिये हम करे हैं सो मुनो एक बज्रावर्त दूजा सागरावर्त ये दो धनुष ५४३३
जिनकी देव सेवा करें हैं सो ये दोनों धनुष वेदोनों भाई चढ़ावें तो हम उनकी शक्ति जाने बहुत कहने से क्या जो वजावर्त धनुष राम चढ़ावें तो तुम्हारी कन्या परणे नातर हम वलात्कार कन्याको यहां ले आयेंगे तुम देखतेही रहोगे तब जनकने कही यह बात प्रमाणहै तब उन्होंने दोनों धनुष दिखाए सो जनक उन धनुषोंको अति विषम देखकर कछुइक पाकुलताको प्राप्त भया फिर वे विद्याधर भाव थकी भगवानकी पूजा स्तुतिकर गदा और हलादि रखोंकर संयुक्त धनुषोंकोले और जनककोले मिथिलापुरीमाए
और चंद्रगति उपवनसे रथनूपुरग्याजवराजाजनक मिथिलापुरीश्राए तपनगरीकी महाशोभाभई मंगला चार भए और सबजन सन्मुखाए और वे विद्याधरनगर के बाहिर एक आयुध शालावनाय वहांधनुप
घरे और महागर्भको धरते संते तिष्ठे जनकखेद सहित किंचित भोजन खाय चिंता कर व्याकुल उत्साह | रहित सेज पर पडे वहां महा नमी भूत उत्तम स्री बहुत आदर सहित चंद्रमा की किरण समान
उज्जल घमरदारती भई राजा अतिदीर्घ निश्वास महा उष्ण अग्निसमान नाषे तब राणी विदेहाने कहा हे नाथ तुमनेकोन स्वर्ग लोक की देवांगना देखी जिसके अनुराग कर ऐसी अवस्था को प्राप्त भए हो । सो हमारे जाननेमें वह कामनी गुण रहित निर्दई है जो तुम्हारे अातापविषे करुणा नहीं करेहे हेनाथवह स्थानक हमें बताको जहाँसे उसे ले अावें तुम्हरे दुःख कर मुझेदुःख और सकल लोको को दुःख होय है तुम ऐसे महा सौभाग्यवन्त उसे क्यों न रुचे वह कोई पाषाण चित्त है उठो राजाओं को जे उचित
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