Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पराख
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गए हैं और मेरे दांत भी गिर गए मामा शरीर का भाताप दखन सक ह राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलय गया ऐसे शरार कर कोई दिनजीवं हूं सो बड़ा आश्चर्ख है जरा से अत्यन्त जर्जर मेरा शरीर सांझ सकारे विमजायगा, मुझे मेरी काया की सुध नहीं तो और सुघ कहांसे होय पूर्वै मेरे नेत्रादिक इन्द्रिय विचक्षणता को
अब नाम मात्र रह गए हैं पांच घर किसी ठौर और परे काहूं ठौर समस्त पृथिवी तत्व दृष्टि से श्याम भासे है ऐसी अवस्था होय गई तो बहुत दिनों से राजद्वार की सेवा है सो नहीं तजसकूं हूं पके फल समान जो मेरा तन उसे काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मुझे मृत्यु का ऐसा भयनहीं जैसा चाकरी चूकने का भय है और मेरे आपकी आज्ञाहीका अवलंबन है, और अवलंबन नहीं, शरीर की अशक्तिता कर विलंब होय ताकू मैं
करूं हेनाथ मेराशरीर जराके आधीन जन कोपमतकरो कृपाही करो, ऐसे वचन खोजे के राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोल कै लगाय चिन्तावान् होय विचारता भया हो यह जल के बुदबुदासमान असार शरीर क्षणभंगुर है और यह यौवनबहुत विभ्रमको घरे संध्या के प्रकाश समान अनित्य है और अज्ञानका कारण है विजली के चमत्कार समान शरीर और संपदा तिनके अर्थ अत्यंत दुःख के साधन कर्म यह प्राणी करे है, उन्मत्त स्त्री के कटोच समान चंचल सर्प के फण समान विष के भरे, महाताप के समूह के कारण ये भोग ही जीवन को ठगे हैं, इसलिये महाठग हैं येविषय विनाशीक इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढ़ों को सुखरूप भासे है ये मूढ़ जीव विषयों को अभिलाषा करे हैं और इनको मन बांधित विषय दुष्प्राप्य हैं विषयों के सुख देखने मात्र मनोग्य हैं और इन के फल अतिकटुक हैं ये विषय इन्द्रायण के फल समान हैं संसारी जीवइन का चाहे हैं सो बड़ा आश्चर्य है जे उत्तमजन विषयों को विष तुल्य जान कर सजे हैं और तम करे हैं वे धन्य हैं, अनेक
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